बिल की मुख्य विशेषताएं
बिल राष्ट्रीय मेडिकल कमीशन (एनएमसी) की स्थापना करता है। एनएमसी मेडिकल शिक्षा और प्रैक्टिस को रेगुलेट करेगा। साथ ही निजी मेडिकल संस्थानों और मानद (डीम्ड) विश्वविद्यालयों की अधिकतम 40% सीटों के लिए फीस निर्धारित करेगा।
एनएमसी में 25 सदस्य होंगे। एक सर्च कमिटी केंद्र सरकार को चेयरपर्सन के पद और पार्ट टाइम सदस्यों के लिए नामों का सुझाव देगी।
एनएमसी की निगरानी में चार स्वायत्त बोर्ड्स का गठन किया गया है। ये बोर्ड अंडरग्रैजुएट और पोस्टग्रैजुएट मेडिकल शिक्षा, मूल्यांकन एवं रेटिंग और नैतिक आचरण (एथिकल कंडक्ट) पर ध्यान केंद्रित करेंगे।
ग्रैजुएशन के बाद डॉक्टरों को राष्ट्रीय लाइसेंशिएट परीक्षा देनी होगी जिसके बाद उन्हें प्रैक्टिस करने के लिए लाइसेंस मिलेगा। यह परीक्षा पोस्ट ग्रैजुएट मेडिकल कोर्सेज में भर्ती का भी आधार होगी।
राज्य मेडिकल काउंसिलें डॉक्टरों के खिलाफ पेशेवर या नैतिक दुर्व्यवहार से संबंधित शिकायतें प्राप्त करेंगी। अगर कोई डॉक्टर राज्य मेडिकल काउंसिल के फैसले से असंतुष्ट होता है तो वह क्रमवार उच्च अधिकारियों को अपील कर सकता है।
प्रमुख मुद्दे और विश्लेषण
एनएमसी के दो तिहाई सदस्य मेडिकल प्रैक्टीशनर्स हैं। एक्सपर्ट कमिटियों ने सुझाव दिया है कि मेडिकल शिक्षा और प्रैक्टिस को रेगुलेट करने में मेडिकल प्रैक्टीशनर्स के प्रभाव को कम करने के लिए कमीशन में अधिक विविध हितधारक (स्टेकहोल्डर्स) होने चाहिए।
एनएमसी निजी मेडिकल कॉलेजों और मानद विश्वविद्यालयों में अधिकतम 40% सीटों की फीस निर्धारित करेगा। एक्सपर्ट्स ने फीस की अधिकतम सीमा तय करने (फीस कैपिंग) के संबंध में विभिन्न पक्ष रखे हैं। कुछ एक्सपर्ट्स का कहना है कि सभी लोगों को मेडिकल शिक्षा उपलब्ध हो, इसके लिए फीस कैपिंग की जानी चाहिए। दूसरी ओर यह भी कहा गया है कि फीस कैपिंग से निजी कॉलेजों की स्थापना पर असर होगा।
मेडिकल प्रैक्टीशनर्स के पेशेवर या नैतिक दुर्व्यवहार के मामलों में, प्रैक्टीशनर्स एनएमसी के फैसलों के खिलाफ केंद्र सरकार से अपील कर सकते हैं। यह अस्पष्ट है कि किसी ज्यूडीशियल बॉडी की बजाय केंद्र सरकार अपीलीय अथॉरिटी क्यों है।
प्रैक्टिस के लाइसेंस के लिए पीरिऑडिक रीन्यूअल लेना जरूरी नहीं है। कुछ देशों में पीरिऑडिक टेस्टिंग की जाती है, जिससे यह सुनिश्चित हो कि प्रैक्टीशनर्स अप टू डेट और प्रैक्टिस के लिए फिट बने हुए हैं और मरीजों को अच्छी देखभाल दे सकते हैं।
बिल आयुष प्रैक्टीशनर्स के लिए ब्रिज कोर्स का प्रस्ताव रखता है जिससे वे आधुनिक दवाइयों के नुस्खे दे सकें। इस प्रावधान पर भिन्न-भिन्न विचार हैं। जहां कुछ परंपरागत और आधुनिक चिकित्सा पद्धतियों के बीच अधिक समन्वय पर बल देते हैं, वहीं कुछ इस कदम को आयुष के स्वतंत्र विकास के लिए हानिकारक बताते हैं।
भाग क : बिल की मुख्य विशेषताएं
संदर्भ
भारतीय मेडिकल काउंसिल एक्ट, 1956 के अंतर्गत भारतीय मेडिकल काउंसिल (एमसीआई) की स्थापना की गई थी। इसका उद्देश्य मेडिकल शिक्षा के मानदंडों को बरकरार रखना, मेडिकल कॉलेजों, मेडिकल कोर्सेज को शुरू करने को मंजूरी देना और मेडिकल क्वालिफिकेशन को मान्यता देना था। एमसीआई मेडिकल प्रैक्टिस के रेगुलेशन के लिए जिम्मेदार है और ऑल इंडिया मेडिकल रजिस्टर में डॉक्टरों को रजिस्टर करने का कार्य भी करती है।[1] राज्यों के अपने खुद के कानून हैं जोकि मेडिकल प्रैक्टीशनर्स के नैतिक और पेशेवर दुर्व्यवहार से संबंधित मामलों को रेगुलेट करने के लिए राज्य मेडिकल काउंसिल की स्थापना करते हैं।[2]
पिछले कुछ वर्षों के दौरान एमसीआई के कामकाज से जुड़ी कई समस्याएं सामने आई हैं। इनमें काउंसिलों की रेगुलेटरी भूमिका, संरचना, भ्रष्टाचार के आरोप और उत्तरदायित्व का अभाव शामिल है।[3],[4] 2009 में यशपाल कमिटी और राष्ट्रीय ज्ञान आयोग ने मेडिकल शिक्षा और मेडिकल प्रैक्टिस के रेगुलेशन को अलग-अलग करने का सुझाव दिया था।[5],[6] सुझाव में कहा गया था कि मेडिकल शिक्षा को रेगुलेट करने का दायित्व एमसीआई का नहीं होना चाहिए बल्कि वह एक ऐसी प्रोफेशनल बॉडी होनी चाहिए जो मेडिकल प्रोफेशन में प्रवेश करने के लिए क्वालिफाइंग परीक्षाएं संचालित करे।
2011 में संसद में उच्च शिक्षा और अनुसंधान (एचईआर) बिल, 2011 और स्वास्थ्य के लिए राष्ट्रीय मानव संसाधन आयोग (एनसीएचआरएच) बिल, 2011 पेश किया गया। एचईआर बिल, 2011 उच्च शिक्षा के सभी रेगुलेटरों (मेडिकल शिक्षा सहित) को एक सिंगल रेगुलेटर के अंतर्गत लाने का प्रयास करता था। इसी तरह एनसीएचआरएच बिल, 2011 एनसीएचआरएच को एक सिंगल रेगुलेटर के रूप में स्थापित करता था। इसके अंतर्गत मेडिकल शिक्षा, मेडिकल प्रैक्टिस को रेगुलेट करने और मेडिकल कॉलेजों की स्थापना और उनका एक्रेडेशन करने हेतु तीन बोर्ड्स की स्थापना का प्रावधान था। एचईआर बिल, 2011 से संबंधित स्टैंडिंग कमिटी की रिपोर्ट में कहा गया कि मेडिकल शिक्षा और अनुसंधान को अलग-अलग नहीं किया जाना चाहिए और उन्हें एनसीएचआरएच द्वारा रेगुलेट किया जाना चाहिए।[7] एनसीएचआरएच बिल, 2011 संबंधी स्टैंडिंग कमिटी ने सरकार को संसद में संशोधित बिल लाने को कहा।[8]एचईआर बिल, 2011 को वापस ले लिया गया लेकिन एनसीएचआरएच बिल, 2011 संसद में लंबित है।
पार्लियामेंटरी स्टैंडिंग कमिटी (2016) और प्रोफेसर रंजीत रॉय चौधरी एवं नीति आयोग की अध्यक्षता वाली एक्सपर्ट कमिटियों (2016) ने एमसीआई के कामकाज की कायापलट करने के लिए विधायी परिवर्तन का सुझाव दिया।4,[9] मेडिकल शिक्षा एवं क्वालिफाइंग परीक्षाएं, मेडिकल एथिक्स एवं प्रैक्टिस, मेडिकल कॉलेजों के एक्रेडेशन जैसे कार्यों के लिए नीति आयोग ने एमसीआई की संरचना में बदलाव और कई स्वायत्त बोर्डों की स्थापना का सुझाव दिया।[10] 29 दिसंबर, 2017 को लोकसभा में राष्ट्रीय मेडिकल कमीशन बिल, 2017 को पेश किया गया। बिल भारतीय मेडिकल काउंसिल एक्ट, 1956 को रद्द करता है।
प्रमुख विशेषताएं
नेशनल मेडिकल कमीशन की संरचना और कार्य
बिल राष्ट्रीय मेडिकल कमीशन (एनएमसी) की स्थापना करता है। एनएमसी में 25 सदस्य होंगे। एक सर्च कमिटी चेयरपर्सन और पार्ट टाइम सदस्यों के पदों के लिए नामों का सुझाव देगी। एनएमसी के सदस्यों का कार्यकाल अधिकतम चार वर्ष का होगा और उन सदस्यों की दोबारा नियुक्ति नहीं की जाएगी।
सर्च कमिटी में सात सदस्य होंगे, जिनमें कैबिनेट सचिव, केंद्रीय स्वास्थ्य सचिव, नीति आयोग के सीईओ और केंद्र सरकार द्वारा नामित चार एक्सपर्ट (जिनमें से दो का मेडिकल फील्ड में अनुभव हो) शामिल हैं।
एनएमसी के सदस्यों में निम्न शामिल हैं : (i) चेयरपर्सन,(ii) एनएमसी के अंतर्गत गठित बोर्ड्स के चार प्रेज़िडेंट्स, (iii) स्वास्थ्य सेवा महानिदेशालय और भारतीय मेडिकल रिसर्च काउंसिल के महानिदेशक, (iv)मेडिकल संस्थानों के पांच निदेशक, जिनमें एम्स, दिल्ली और जिपमेर, पुद्दूचेरी शामिल हैं, (v) पंजीकृत मेडिकल प्रैक्टीशनर्स द्वारा चयनित पांच सदस्य (पार्ट टाइम) और(vi) मेडिकल एडवाइजरी काउंसिल में राज्यों के नामित सदस्यों में से तीन सदस्यों की बारी-बारी से नियुक्ति।
एनएमसी के कार्यों में निम्नलिखित शामिल हैं : (i)मेडिकल संस्थानों और मेडिकल प्रोफेशनल्स को रेगुलेट करने के लिए नीतियां बनाना, (ii) स्वास्थ्य सेवा के क्षेत्र में मानव संसाधन और इंफ्रास्ट्रक्चर की जरूरत का आकलन करना, और (iii) बिल के अंतर्गत रेगुलेट होने वाले प्राइवेट मेडिकल संस्थानों और मानद विश्वविद्यालयों की अधिकतम 40% सीटों की फीस तय करने के लिए दिशानिर्देश तैयार करना।
अगर भारत के सांविधिक या अन्य निकायों द्वारा ऐसी मेडिकल क्वालिफिकेशंस दी जाती हैं जो बिल की अनुसूची में सूचीबद्ध श्रेणियों में शामिल हैं तो उन मेडिकल क्वालिफिकेशंस को भी मान्यता प्राप्त होगी। राष्ट्रीय महत्व के संस्थानों (जैसे एम्स और जिपमेर) के अपने संसदीय कानून होंगे और वे एनएमसी के अंतर्गत नहीं आएंगे।
स्वायत्त बोर्ड्स
एनएमसी के निरीक्षण में चार स्वायत्त बोर्ड्स का गठन किया गया है। प्रत्येक स्वायत्त बोर्ड में एक प्रेज़िडेंट और केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त दो सदस्य होंगे।
रेखाचित्र 1: एनएमसी के अंतर्गत चार स्वायत्त बोर्ड्स
मेडिकल एडवाइजरी काउंसिल
केंद्र सरकार मेडिकल एडवाइजरी काउंसिल का गठन करेगी। काउंसिल वह मुख्य प्लेटफॉर्म होगा, जिसके जरिए राज्य/केंद्र शासित प्रदेश एनएमसी से संबंधित अपने विचार और चिंताओं को साझा कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त काउंसिल एनएमसी को इस संबंध में सलाह देगा कि किस प्रकार सभी लोगों को समान रूप से मेडिकल शिक्षा प्राप्त हो सके।
क्वालिफाइंग परीक्षाएं
बिल द्वारा रेगुलेट किए जाने वाले सभी मेडिकल संस्थानों में अंडर-ग्रैजुएट मेडिकल शिक्षा में प्रवेश के लिए एक समान नेशनल एलिजिबिलिटी कम इंट्रेंस टेस्ट (नीट) होगा। मेडिकल संस्थानों से ग्रैजुएट होने वाले विद्यार्थियों को प्रैक्टिस करने के लिए लाइसेंस हासिल करने हेतु राष्ट्रीय लाइसेंशिएट परीक्षा देनी होगी। मेडिकल संस्थानों में पोस्ट-ग्रैजुएट कोर्सेज में प्रवेश हासिल करने के लिए राष्ट्रीय लाइसेंशिएट परीक्षा आधार का काम भी करेगी।
कुछ मामलों में एनएमसी राष्ट्रीय लाइसेंशिएट परीक्षा से छूट की अनुमति दे सकता है। इस तरीके से भारत में विदेशी मेडिकल प्रैक्टीशनर्स को अस्थायी रजिस्ट्रेशन की अनुमति दी जाएगी, जिसे निर्दिष्ट किया जा सकता है।
एनएमसी और केंद्रीय होम्योपैथी एवं भारतीय मेडिसिन काउंसिल्स आयुष प्रैक्टीशनर्स के लिए ब्रिज कोर्सेज को मंजूरी दे सकते हैं। इससे वे उस स्तर पर आधुनिक दवाओं का नुस्खा दे सकेंगे जिसे केंद्र सरकार द्वारा अधिसूचित किया जाएगा।
पेशेवर और नैतिक दुर्व्यवहार से संबंधित मामलों में अपील
राज्य मेडिकल काउंसिल्स पंजीकृत मेडिकल प्रैक्टीशनर के खिलाफ पेशेवर या नैतिक दुर्व्यवहार से संबंधित शिकायतों को प्राप्त करेंगी। अगर काउंसिल के फैसले से मेडिकल प्रैक्टीशनर असंतुष्ट है तो वह एथिक्स और मेडिकल रजिस्ट्रेशन बोर्ड से अपील कर सकता है।
राज्य मेडिकल काउंसिल्स तथा एथिक्स और मेडिकल रजिस्ट्रेशन बोर्ड के पास मेडिकल प्रैक्टीशनर के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई करने की शक्ति है जिसमें आर्थिक दंड लगाना भी शामिल है। अगर बोर्ड के फैसले से मेडिकल प्रैक्टीशनर असंतुष्ट है तो वह एनएमसी से अपील कर सकता है। एनएमसी के फैसले के खिलाफ केंद्र सरकार के समक्ष अपील की जा सकती है।
अपराध और दंड
राज्य या राष्ट्रीय रजिस्टर में नामांकित व्यक्तियों के अतिरिक्त अन्य किसी व्यक्ति को मेडिसिन प्रैक्टिस करने की अनुमति नहीं है। इस प्रावधान का उल्लंघन करने पर एक से पांच लाख रुपए तक का जुर्माना भरना पड़ सकता है।
भाग ख: प्रमुख मुद्दे और विश्लेषण
राष्ट्रीय मेडिकल कमीशन की संरचना
बिल मेडिकल शिक्षा और प्रैक्टिस के रेगुलेटर के रूप में राष्ट्रीय मेडिकल कमीशन (एनएमसी) की स्थापना करता है। एनएमसी में 25 सदस्य होंगे जिनमें से 17 (68%) मेडिकल प्रैक्टीशनर होंगे।
भारतीय मेडिकल काउंसिल (एमसीआई) मौजूदा रेगुलेटर है जोकि एक निर्वाचित निकाय है। एमसीआई के प्रेज़िडेंट और सदस्यों को मेडिकल प्रैक्टीशनर खुद चुनते हैं। बिल एमसीआई की जगह एनएमसी को लाया है जोकि एक निर्वाचित निकाय नहीं है। एमसीआई की संरचना की पड़ताल करते हुए पार्लियामेंटरी स्टैंडिंग कमिटी (2016) ने कहा था कि यह विविधतापूर्ण नहीं है और इसमें अधिकतर डॉक्टर होते हैं जोकि जनहित की अपेक्षा अपना हित देखते हैं।4 कमिटी ने सुझाव दिया था कि डॉक्टरों की मोनोपली को कम करने के लिए एमसीआई में विभिन्न स्टेकहोल्डर्स को शामिल किया जाना चाहिए जैसे सार्वजनिक स्वास्थ्य के एक्सपर्ट्स, सोशल साइंटिस्ट्स, हेल्थ इकोनॉमिस्ट्स और स्वास्थ्य क्षेत्र से जुड़े गैर सरकारी संगठन।
उल्लेखनीय है कि युनाइटेड किंगडम में जनरल मेडिकल काउंसिल, जो मेडिकल शिक्षा और प्रैक्टिस को रेगुलेट करती है, में 12 मेडिकल प्रैक्टीशनर और 12 सामान्य सदस्य (जैसे सामुदायिक स्वास्थ्यकर्मी और स्थानीय सरकार के अधिकारी) होते हैं।[11]
स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण संबंधी स्टैंडिंग कमिटी (2018) ने एनएमसी बिल, 2017 की पड़ताल करने पर सुझाव दिया है कि एनएमसी की कुल सदस्य संख्या को 25 से बढ़ाकर 29 किया जाए।[12] इसके अतिरिक्त उसने कहा है किएनएमसी में अधिकतर नामित सदस्य हैं। कमीशन में निर्वाचित सदस्यों के उचित प्रतिनिधित्व के लिए पंजीकृत मेडिकल प्रैक्टीशनर्स को स्वयं में से नौ सदस्यों को निर्वाचित करना चाहिए।12 इस अनुपात से एनएमसी में डॉक्टरों का प्रतिनिधित्व 72% हो जाएगा।
फीस निर्धारित करने की शक्ति
बिल एनएमसी को शक्ति प्रदान करता है कि वह निजी मेडिकल कॉलेजों और मानद विश्वविद्यालयों में अधिकतम 40% सीटों की फीस निर्धारित करने के लिए दिशानिर्देश तैयार करे। प्रश्न यह है कि रेगुलेटर के रूप में क्या एनएमसी को निजी मेडिकल कॉलेजों की फीस रेगुलेट करनी चाहिए।
सामान्य तौर पर निजी क्षेत्र लाभ के उद्देश्य से कार्य करता है लेकिन भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि देश में शिक्षा प्रदान करने वाले निजी संस्थानों को धर्मार्थ और गैर लाभकारी संगठनों के रूप में कार्य करना होगा।[13] 2002 में सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला दिया था कि निजी गैर सहायता प्राप्त शिक्षण संस्थानों की फीस को रेगुलेट किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त सर्वोच्च न्यायालय ने कैपिटेशन फीस पर तो प्रतिबंध लगाया था लेकिन शिक्षण संस्थानों को वाजिब (रीजनेबल) सरप्लस फीस लेने की अनुमति दी थी जिसका उपयोग उसके विस्तारीकरण और विकास के लिए किया जाना चाहिए।[14],[15] हालांकि कई एक्सपर्ट कमिटियों ने कहा है कि अनेक निजी शिक्षण संस्थान हद से ज्यादा फीस लेते हैं जिससे प्रतिभाशाली विद्यार्थियों के लिए मेडिकल शिक्षा महंगी हो जाती है और उन्हें उपलब्ध नहीं हो पाती।4,5,10 इसलिए वर्तमान में निजी गैर सहायता प्राप्त कॉलेजों की फीस संरचना को राज्य सरकारों द्वारा गठित कमिटी द्वारा तय किया जाता है जिसकी अध्यक्षता उच्च न्यायालय के सेवानिवृत न्यायाधीश करते हैं।[16] यह कमिटी तय करती है कि कॉलेज द्वारा प्रस्तावित फीस उचित है अथवा नहीं और कमिटी का फैसला बाध्यकारी होता है।
दूसरी ओर निजी कॉलेजों का दावा है कि फीस को समय-समय पर संशोधित किया जाना चाहिए जिससे (i) मेनटेनेंस की बढ़ती लागत और प्रशासनिक खर्चों, (ii) फैकेल्टी और स्टाफ के वेतन में संशोधन, (iii) लैब उपकरणों के मेनटेनेंस, मूल्य संवर्धित कोर्सेज़ के लिए अपेक्षित अतिरिक्त संसाधनों, और दूसरी आकस्मिक परिस्थितियों को कवर किया जा सके।[17] नीति आयोग की कमिटी (2016) का यह मानना था कि फी कैप से निजी कॉलेजों की स्थापना पर असर होगा और फलस्वरूप देश में मेडिकल शिक्षा का विस्तार सीमित होगा।10 यह भी गौर किया गया कि फी कैप को लागू करना मुश्किल है और इससे मेडिकल कॉलेज दूसरे बहानों से‘अंडर द टेबल’ कैपिटेशन फीस और अन्य नियतकालीन फीस वसूलना जारी रखेंगे।10
पार्लियामेंटरी स्टैंडिंग कमिटी (2018) ने फी स्ट्रक्चर की मौजूदा प्रणाली को जारी रखने का सुझाव दिया है जिसमें उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली कमिटी द्वारा फीस तय की जाती है।12 हालांकि जिन निजी मेडिकल कॉलेजों और मानद विश्वविद्यालयों का रेगुलेशन मौजूदा प्रणाली के अंतर्गत नहीं किया जाता, उनकी न्यूनतम 50% सीटों की फीस रेगुलट की जानी चाहिए। केंद्रीय कैबिनेट ने एक संशोधन का अनुमोदन किया है जिसके अंतर्गत अब 50% सीटों की फीस तय किए जाने का प्रावधान है।[18]
पेशेवर और नैतिक दुर्व्यवहार से संबंधित फैसलों पर अपील
डॉक्टरों के दुर्व्यवहार से संबंधित अपीलों की सुनवाई करने की केंद्र सरकार की क्षमता
बिल के अंतर्गत संबंधित राज्य कानूनों के अंतर्गत स्थापित राज्य मेडिकल काउंसिल्स पंजीक़ृत मेडिकल प्रैक्टीशनर्स के खिलाफ पेशेवर या नैतिक दुर्व्यवहार से संबंधित शिकायतों को प्राप्त करेंगी। अगर कोई मेडिकल प्रैक्टीशनर राज्य मेडिकल काउंसिल के फैसले से असंतुष्ट है तो वह एथिक्स और मेडिकल रजिस्ट्रेशन बोर्ड से अपील कर सकता है।राज्य मेडिकल काउंसिल्स तथा एथिक्स और मेडिकल रजिस्ट्रेशन बोर्ड के पास मेडिकल प्रैक्टीशनर के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई करने की शक्ति है जिसमें आर्थिक दंड लगाना भी शामिल है। अगर बोर्ड के फैसले से मेडिकल प्रैक्टीशनर असंतुष्ट है तो वह एनएमसी से अपील कर सकता है। बिल के क्लॉज 30 (5) के अनुसार एनएमसी के फैसले के खिलाफ केंद्र सरकार के समक्ष अपील की जा सकती है। यह अस्पष्ट है कि मेडिकल प्रैक्टीशनर्स के पेशेवर या नैतिक दुर्व्यवहार से संबंधित मामलों में केंद्र सरकार अपीलीय अथॉरिटी क्यों है।
कहा जा सकता है कि मेडिकल प्रैक्टिस में नैतिक दुर्व्यवहार से संबंधित विवादों में न्यायिक विशेषज्ञता की जरूरत हो सकती है। जैसे यूके में मेडिकल शिक्षा और प्रैक्टिस की रेगुलेटर- जनरल मेडिकल काउंसिल (जीएमसी) नैतिक दुर्व्यवहार से संबंधित शिकायतों को प्राप्त करती है। काउंसिल से उस मामले में शुरुआती डॉक्यूमेंटरी जांच की अपेक्षा की जाती है और फिर वह उस शिकायत को ट्रिब्यूनल को भेजती है। यह ट्रिब्यूनल जीएमसी से स्वतंत्र न्यायिक निकाय है।11ट्रिब्यूनल द्वारा न्यायिक फैसला किया जाता है और अंतिम अनुशासनात्मक कार्रवाई की जाती है।
इसके अतिरिक्त बिल वह समयावधि निर्दिष्ट नहीं करता, जिसमें केंद्र को ऐसी किसी अपील पर फैसला करना होगा। उल्लेखनीय है कि पार्लियामेंटरी स्टैंडिंग कमिटी (2018) ने कहा है कि केंद्र सरकार को अपीलीय न्यायाधिकार देना, सेपरेशन ऑफ पावर्स के संवैधानिक प्रावधान के अनुकूल नहीं है।12उसने इसके स्थान पर मेडिकल अपीलीय ट्रिब्यूनल की स्थापना का सुझाव दिया।12
राज्य मेडिकल काउंसिल्स की संरचना
बिल कहता है कि जिन राज्यों के कानून राज्य मेडिकल काउंसिल्स को मेडिकल प्रैक्टीशनर्स के खिलाफ पेशेवर और नैतिक दुर्व्यवहार के मामलों में अनुशासनात्मक कार्रवाई करने की शक्ति देते हैं, उन राज्यों में काउंसिल्स दुर्व्यवहार से संबंधित शिकायतों का निवारण करेंगी।
वर्तमान में 29 राज्यों ने राज्य मेडिकल काउंसिल्स की स्थापना की है। इन काउंसिल्स से अपेक्षा की जाती है कि वे मेडिकल प्रैक्टीशनर्स के पेशेवर आचरण को रेगुलेट करने के लिए आचार संहिता बनाएं और उनका उल्लंघन करने पर अनुशासनात्मक कार्रवाई करें।2 गुजरात, महाराष्ट्र और दिल्ली सहित अनेक राज्यों में राज्य मेडिकल काउंसिल एक निर्वाचित निकाय है जिसके सदस्य मुख्य रूप से मेडिकल प्रैक्टीशनर होते हैं (ये अपने राज्य के कानूनों से प्रशासित होते हैं)।[19],[20],[21] इस संबंध में मसौदा एनएमसी बिल पर नीति आयोग (2016) ने कहा था कि अगर ‘रेगुलेटर’ (मुख्य रूप से मेडिकल प्रैक्टीशनर्स की सदस्यता वाली राज्य मेडिकल काउंसिल्स) के सदस्य उन लोगों द्वारा निर्वाचित होंगे जिनका ‘रेगुलेशन किया जाना है’ (मेडिकल प्रैक्टीशनर)तो हितों में टकराव हो सकता है।10
पार्लियामेंटरी स्टैंडिंग कमिटी (2016) ने कहा कि मौजूदा एमसीआई की एथिक्स कमिटी में पूरी तरह से मेडिकल डॉक्टर हैं और इसलिए यह एक सेल्फ रेगुलटरी निकाय है। इसकी प्रवृत्ति ‘अपने लोगों को बचाने’ (प्रोटेक्ट इट्स ओन फोक) की होगी।4 कमिटी ने यह गौर किया कि राज्य मेडिकल काउंसिल्स नैतिकता से संबंधित फैसलों को छह महीने (फैसला लेने की नियत समय अवधि) के बाद भी लटकाती हैं और दोषी डॉक्टरों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की जाती।4 कमिटी ने मेडिकल एथिक्स के मुद्दों पर अधिक जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए राज्य मेडिकल काउंसिल्स में सामान्य लोगों को शामिल करने का सुझाव दिया।
राष्ट्रीय लाइसेंशिएट परीक्षा से संबंधित समस्याएं
राष्ट्रीय लाइसेंशिएट परीक्षा से छूट
एनएमसी राष्ट्रीय लाइसेंशिएट परीक्षा को क्वालिफाई न करने वाले मेडिकल प्रैक्टीशनर को सर्जरी या प्रैक्टिस करने की अनुमति दे सकता है, उन स्थितियों में और उस अवधि के लिए जिसे रेगुलेशनों के जरिए निर्दिष्ट किया जा सकता है। स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय ने यह स्पष्टीकरण दिया है कि इस छूट का अर्थ यह नहीं है कि राष्ट्रीय लाइसेंशिएट परीक्षा में फेल होने वाले डॉक्टरों को प्रैक्टिस की अनुमति दी जाएगी, बल्कि इसका उद्देश्य नर्सों और डेंटिस्ट्स जैसे मेडिकल प्रोफेशनल्स को प्रैक्टिस करने की अनुमति देना है।[22] ‘मेडिकल प्रैक्टीशनर’ शब्द में एमबीबीएस डॉक्टरों के अतिरिक्त क्या मेडिकल प्रोफेशनल्स भी शामिल हैं, यह बिल में स्पष्ट नहीं है।
प्रैक्टिस करने के लिए लाइसेंस का रीन्यूअल
बिल मेडिकल संस्थानों से ग्रैजुएट होने वाले विद्यार्थियों के लिए राष्ट्रीय लाइसेंशिएट परीक्षा को प्रस्तावित करता है जिसे क्वालिफाई करने के बाद उन्हें प्रैक्टिस करने के लिए लाइसेंस प्राप्त होगा। बिल में इस लाइसेंस की वैधता की अवधि निर्दिष्ट नहीं की गई है। युनाइटेड किंगडम (यूके) और ऑस्ट्रेलिया जैसे अन्य देशों में इस लाइसेंस को नियत समय पर रीन्यू करने की जरूरत होती है। उदाहरण के लिए यूके में हर पांच वर्षों में लाइसेंस रीन्यू किया जाता है, जबकि ऑस्ट्रेलिया में हर साल इसे रीन्यू किया जाता है।[23],[24] इससे यह सुनिश्चित किया जाता है कि डॉक्टर अप टू डेट हैं, प्रैक्टिस करने के लिए फिट हैं और मरीजों को अच्छी देखभाल प्रदान कर सकते हैं। इसके लिए उन्हें निरंतर व्यावसायिक विकास प्रदर्शित करना पड़ता है। उनका कोई क्रिमिनल रिकॉर्ड नहीं होना चाहिए। साथ ही उन्हें पेशेवर मानदंडों का भी पालन करना होता है।23,24
आयुष प्रैक्टीशनर्स के लिए ब्रिज कोर्स
आयुष प्रैक्टीशनर्स के लिए ब्रिज कोर्स शुरू करने पर भिन्न-भिन्न विचार
बिल ब्रिज कोर्सेज को मंजूरी देता है जिससे आयुष प्रैक्टीशनर्स आधुनिक दवाओं का नुस्खा दे सकें। वे किस स्तर पर ये नुस्खे दे पाएंगे, इसका निर्धारण केंद्र सरकार द्वारा अधिसूचना के जरिए किया जाएगा। इसके अतिरिक्त ब्रिज कोर्स के लिए क्वालिफाई करने वाले लाइसेंसशुदा आयुष प्रैक्टीशनर्स के लिए एक अलग राष्ट्रीय रजिस्टर मेनटेन किया जाएगा। पार्लियामेंटरी स्टैंडिंग कमिटी (2016) ने कहा था कि ब्रिज कोर्स का प्रावधान बिल में अनिवार्य करने की जरूरत नहीं है और राज्य सरकारें अपने क्षेत्र की स्वास्थ्य संबंधी चुनौतियों को देखते हुए अपने स्तर पर चुनाव कर सकती हैं।12 इसके अतिरिक्त इस बात पर भी भिन्न-भिन्न विचार हैं कि क्या आयुष प्रैक्टीशनर्स को आधुनिक दवाओं का नुस्खा देना चाहिए।
पिछले कुछ वर्षों के दौरान विभिन्न कमिटियों ने सुझाव दिया है कि चिकित्सा की विविध प्रणालियों, जैसे आयुर्वेद, आधुनिक चिकित्सा और अन्य के बीच समन्वय किया जाए और उसके बाद उनका निरीक्षण किया जाए।[25],[26] राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति, 2017 ने भी आयुष को सामान्य स्वास्थ्य प्रणाली की मुख्यधारा में लाने का सुझाव दिया था लेकिन उसके साथ ब्रिज कोर्स की अनिवार्यता की बात की थी जोकि उन्हें एलोपैथिक उपचार से संबंधित कुशलता प्रदान करेगा।[27]
दूसरी ओर बिल में आयुष प्रैक्टीशनर्स के आधुनिक दवा के नुस्खे लिखने से संबंधित प्रावधान पर भी एक्सपर्ट्स ने कुछ मुद्दे उठाए हैं।[28],[29],[30] उनका कहना है कि देश में डॉक्टरों की कमी को देखते हुए एलोपैथिक डॉक्टरों के विकल्प के तौर पर आयुष प्रैक्टीशनर्स को ब्रिज कोर्स के जरिए बढ़ावा मिल सकता है। लेकिन इससे चिकित्सा की स्वतंत्र प्रणालियों के रूप में आयुष प्रणाली के विकास पर असर हो सकता है। इसके अतिरिक्त उनका कहना है कि बिल के अंतर्गत आयुष डॉक्टरों को दूसरे डॉक्टरों की तरह एनएमसी में पंजीकरण के लिए किसी लाइसेंशिएट परीक्षा से नहीं गुजरना होगा। केंद्रीय मंत्रिमंडल ने ब्रिज कोर्स के प्रावधान को हटाने के लिए एक संशोधन को मंजूरी दी है।18
अन्य चिकित्साकर्मियों की आधुनिक दवा के नुस्खे देने की क्षमता
जनवरी 2018 में स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने कहा कि भारत में डॉक्टरों की संख्या का अनुपात 1:1655 है जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन का मानक 1:1000 का है।22बिल के अंतर्गत आयुष प्रैक्टीशनर्स के लिए ब्रिज कोर्स शुरू करने से मेडिकल प्रोफेशनल्स की उपलब्धता के इस अंतराल को भरा जा सकता है।22 अगर ब्रिज कोर्स का उद्देश्य मेडिकल प्रोफेशनल्स की कमी को दूर करना है तो यह अस्पष्ट है कि ब्रिज कोर्स करने का विकल्प एलोपैथिक मेडिकल प्रोफेशनल्स के दूसरे कैडर जैसे नर्सों और डेंटिस्ट्स पर क्यों नहीं लागू होता। उल्लेखनीय है कि ‘मेडिकल प्रैक्टीशनर’ शब्द में एमबीबीएस डॉक्टरों के अतिरिक्त क्या मेडिकल प्रोफेशनल्स भी शामिल हैं, यह बिल में स्पष्ट नहीं है। ऐसे अनेक देश हैं जहां डॉक्टरों के अतिरिक्त दूसरे मेडिकल प्रोफेशनल्स को एलोपैथिक दवाओं के नुस्खे देने की अनुमति है। उदाहरण के लिए यूएसए में नर्स प्रैक्टीशनर प्राइमरी, एक्यूट और स्पशेलिटी हेल्थ सर्विस प्रदान करते हैं जिसमें डायग्नॉस्टिक टेस्ट्स का निर्देश देना और टेस्ट करना तथा दवाओं के नुस्खे देना शामिल है।[31] इसके लिए नर्स प्रैक्टीशनर्स को मास्टर्स या डॉक्टरल डिग्री प्रोग्राम पूरा करना होता है, एडवांस क्लिनिकल ट्रेनिंग लेनी होती है और नेशनल सर्टिफिकेशन हासिल करना होता है।
उल्लेखनीय है कि मसौदा मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी (संशोधन) बिल, 2014 में कानून का संशोधन करने का प्रयास किया गया है जिससे अबॉर्शन (24 हफ्ते की गर्भावस्था तक) करने वालों के दायरे में नर्स या एक्सिलियरी नर्स मिडवाइफ (एएनएम) तथा आयुष प्रैक्टीशनर्स को शामिल किया जा सके।[32] बिल को संसद में पेश नहीं किया गया है।