सरकारी अस्पतालों की एक स्थायी प्रकृति होती है कि वे हमेशा गंधाते रहते हैं।
मरीजों व तीमारदारों की भारी भीड़…सफाईकर्मी कम… शौचालय जाम…. उसमें पानी भी नहीं।ऐसे में कोई करे भी तो क्या?अस्पताल जब बना था ,तब सब चालू हालत में था।स्टील की टोंटियां, एग्जॉस्ट फैन व अन्य जो कुछ भी चुराने लायक था ,भाई लोग चुरा ले गए।नलके बंद कर दिये गए या प्लास्टिक की टोंटी लगानी पड़ी।शौचालय की सीट में बंधुओं ने पहले तो पॉलिथीन,पत्तल,दोना ,रैपर व कागज के डिब्बे डाल डाल कर जाम कर दिया फिर उसके ऊपर हग हग कर ऐसा सीलबंद किया कि अब वह रिपेयर के काबिल भी न रहा।
असली शौचालय कुछ तो परंपरा और कुछ नियति वश बाउंडरी वाल के किनारे किनारे व कुछ खाली पड़ी जमीनों पर स्वतः उग आए।
कूड़े के ढेर तो यहां वहां सड़ते ही रहते थे।नालियों का गंदा पानी जहाँ से बहना चाहिये ,वहाँ से न बह कर ऐसे रास्तों से बहता था जहाँ उसे कतई नहीं बहना चाहिये।
मरीज व तीमारदारों की शाश्वत हजार शिकायतें…गंदगी बहुत है…डॉ मिलते नहीं,भागे रहते हैं…नर्से सीधे मुँह बात नहीं करतीं,चाहे मरीज मर जाये.. कुछ सुनती नहीं…आदि आदि…ज्यादातर सही।
ऐसे माहौल में मुख्यमंत्री का दौरा प्रस्तावित हो जाय तो?
कोई बात नहीं।आदम का चोला धरे हैं तो घबराना क्या?हमारा विकास ही विषम परिस्थितियों में भी जिंदा रहने की फ़ितरत से हुआ है।वह तो हमारे डीएनए में है।
मुख्यमंत्री के आगमन की सूचना तीन दिन पहले आ गयी थी।वैसे तीन घंटे पहले भी आती तो भी काफी था।
जो डॉ ‘सेटिंग’ करके भाग चुके थे,वे सब हाज़िर हो गए।जो कभी नहीं होता था,वह सब होने लगा।कूड़े के ढेर ट्रैक्टर ट्राली पर लाद लाद कर हटा दिये गए,नालियों के ब्लॉकेज साफ कर दिए गए, अस्पताल की धुलाई सफाई हुई,डॉक्टरों के मेज पर मेजपोश लगा कर BP Instrument व आले रख दिये गए,मेजों के ड्रॉअर जो जाने कब से टूट कर लटके पड़े थे,ऐसे ठोंके गए कि कोई माई का लाल दुबारा खोल न पाए।बिस्तरों पर नयी चादरें डाल दी गयीं।और तो और वेटिंग एरिया का tv चलने लगा।
200 बेड के बड़े से अस्पताल में पचासेक शौचालय तो होंगे ही।उन्हें चालू करना संभव न था।वे बदबू के प्रमुख स्रोत थे और यही अस्पताल की पहचान थी।इसका तोड़ यह निकाला गया कि सबमे अंजुरी अंजुरी भर ब्लीचिंग पाउडर झोंक कर दरवाजे बंद कर दिए गए और एल्युमीनियम के तार से कुंडियां ऐसे कस दी गईं की दरवाजा खुले ही न।
बेड तो 200 थे पर मरीज करीब 250।उसमें कुछ ‘बवालिये’थे…यानी बवाल काटने वाले।अब इस सिक्के के दो पहलू थे।जैसे एक देश का आतंकवादी दूसरे देश का freedom fighter होता है।वे शिक्षित,जागरूक व अपने अधिकारों के प्रति सजग थे और हर उस चीज की मांग करते जो नियमतः उन्हें मिलनी चाहिये।न मिलने पर बवाल काटते थे।कुछ मरीज…’जेहि विधि राखें राम,ताहि विधि रहिये’ व ‘हुइहैं वही जो राम रचि राखा’ ;पर यकीन करते थे।वे कोई शिकायत नहीं करते थे।
बवालियों द्वारा शिकायत किये जाने की प्रबल संभावना थी।सो निर्णय लिया गया कि इन सबको डिस्चार्ज कर दिया जाय।न रहे बाँस न बजे बाँसुरी!विशेषज्ञों ने वार्डों का भ्रमण किया।बवालियों को समझाया कि भैया अब तुम ठीक हो..घर जाओ..दवा लिखे देता हूँ…घर पर खाते रहना,बस! इस तरह indoor, बवालियों से मुक्त हुआ।
ओपीडी के लिये रणनीति बनाई गई कि फ़िलहाल कोई दवा बाहर से नहीं लिखी जाएगी।यदि कोई जरूरी दवा नहीं है तो कुछ भी पकड़ा दो पर पकड़ाओ अंदर से।मेडिकल स्टोरों,जांच केंद्रों व प्राइवेट अस्पतालों के दलालों को खदेड़ दिया गया।डॉक्टर व पैरामेडिक,सब एप्रन पहन लिये व परिचय पत्र की माला गले में लटका ली।
बवालियों में भी एक ‘दर बवाली’था।दरअसल वह एक साधू बाबा था,लावारिस टाइप,न घर न परिवार।उसे भी डिस्चार्ज किया गया।समझाया गया, ‘बाबा!अब तुम ठीक हो।घर जाओ।दवा दे रहे हैं,घर पर खाना!’
पर बाबा बोला,’हम कहूँ न जाब।जब लौं ठीक न होब,कहूँ न जाब।’ वह अंगद का पांव जमा कर बैठ गया।
अब क्या करें? चूहों की सभा के तर्ज पर…एक एक कर आये तो प्रस्ताव बहुत से।एक फार्मासिस्ट ने अपने पूर्व अनुभव के आधार पर सलाह दी कि मुख्यमंत्री के आगमन से आधा घंटा पहले बाबा के पिछवाड़े में आधा ampule, calmpose ठोंक दिया जाय।
फिर क्या हुआ ,पता नहीं।मैं तो मुख्यमंत्री के जुलूस का तमाशा देखने लग गया।वे बमुश्किल 10मिनट रुके,मरीजों से हाल चाल पूछा और फिर चले गए।
दोपहर में जब मैं वार्ड में गया तो देखा, बाबा आराम से खुर्राटें मार कर सो रहा था।