डॉक्टर gurnani

आत्महत्या हो या हत्या, दोनों ही हालत में होने वाली हत्या मनोरोगियों के एक ही विकार की वजह से हुई घटना है। मरीज की मानसिक हालत पर निर्भर करता है कि वह आत्महत्या करेगा या हत्या। मिसाल के लिए, एक मामला सामूहिक आत्महत्या का है, जिसमें अवसाद से पीड़ित एक मां आत्महत्या करती है, लेकिन अपने बच्चों को भी जीवित नहीं छोड़ती। 

कोई अवसाद के लिए इलाज करा रहा था और उसने आत्महत्या कर ली, तो इसका मतलब यह नहीं कि इसके लिए उसका अवसाद जिम्मेदार है। अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत के मामले में भी यह बात लागू होती है। यदि यह तय किया जाना है कि क्या उन्हें ऐसा अवसाद था, जिसके कारण उन्होंने आत्महत्या कर ली, तो मैकनोटेन रूल के तहत वही पैरामीटर लागू करना होगा, जो मानसिक रूप से बीमार व्यक्ति द्वारा की गई हत्या के मामले का आकलन करने में लागू होता है। 

यह समझने के लिए कि अवसाद की वजह से आत्महत्या की कोशिश करने वाले व्यक्ति की मानसिक स्थिति क्या है, हमें एक सामान्य व्यक्ति की स्थिति की कल्पना करनी होगी, जो अपने जीवन में ऐसी ही स्थिति का सामना कर रहा हो। उस व्यक्ति के बारे में सोचें, जिस पर बहुत कर्ज है और जिसके लिए कोई भविष्य या गुंजाइश नहीं। उसे लगता है, उसका सारा परिवार अपमानित हो सकता है या उसे सलाखों के पीछे डाला जा सकता है। ऐसे में, उसके लिए बेहतर क्या है कि वह मर जाए या जीवित रहकर बिगडे़ हालात का सामना करे? वह आत्महत्या के बारे में सोच सकता है, लेकिन फिर वह यह भी सोचता है कि उसके प्रियजनों को कष्ट होगा। वह दुविधा में होता है, और तय नहीं कर पाता कि क्या किया जाए। अनिश्चितता की यह स्थिति उसके दर्द को बढ़ा देती है, उसे और उदास कर देती है। अवसाद में वृद्धि उसकी शारीरिक शक्ति व ऊर्जा में कमी की वजह बनती है। कई बार उसमें इतनी ताकत नहीं होती कि वह हत्या या आत्महत्या को अंजाम दे सके। इसलिए गंभीर अवसाद में रहने वाले लोग आमतौर पर आत्महत्या करने में सक्षम नहीं होते या अगर कोशिश करते हैं, तो अक्सर नाकाम रहते हैं। देखा गया है कि अवसादग्रस्त लोग आत्महत्या करते भी हैं, तो कुछ उपचार के बाद। ऐसे लोग अपने प्रियजनों के लिए कोई पत्र छोड़ जाते हैं, क्योंकि वे नहीं चाहते कि उन्हें नुकसान उठाना पड़े। ऐसी आत्महत्या के अन्य कारण भी हो सकते हैं, जिसमें लोग कोई पत्र नहीं छोड़ते, इसके पीछे क्रोध या बदला लेने की इच्छा हो सकती है। आज हमें अलग ढंग से भी सोचना होगा, आज से कुछ साल पहले आत्महत्या को अपराध माना जाता था। अगर कोई आत्महत्या की कोशिश के बावजूद बच जाता था, तो उस पर मुकदमा चलता था, मगर अब यदि यह साबित हो जाए कि व्यक्ति ने अवसाद की वजह से आत्महत्या की है, तो इसे अपराध नहीं माना जाता। मान लीजिए, सुशांत बच गए होते और उन पर आत्महत्या की कोशिश का केस चलता, तो उन्हें अपने बचाव में साबित करना पड़ता कि मैं अवसाद में था। 

आज घरों में दस झगडे़ होते हैं, कोई भी कह देता है कि मैं मरने जा रहा हूं। बच्चों को मां डांटती है, तो कह देते हैं, मर जाऊंगा। वह बच्चा अगर आत्महत्या की कोशिश करता है, तो क्या हम कहेंगे कि उसे अवसाद था? अवसाद की वजह से आत्महत्या हुई है या नहीं, यह तय करने के लिए हमें बीमारी की गंभीरता को समझना होगा। 

घटना से दो-तीन दिन पहले सुशांत की जो स्थिति थी, क्या वह यह सोचने-समझने की स्थिति में नहीं थे कि क्या करने जा रहे हैं? कहा जा रहा है कि उनके घर पार्टी हो रही थी और वह अवसाद में थे, दोनों बातों में विरोधाभास है। अगर वह सोचने-समझने की स्थिति में थे, तो अवसाद कारण नहीं है। अपनी जान लेने के अनेक कारण हो सकते हैं, कोई आदमी क्षणिक आवेश में आकर भी ऐसा कर सकता है। जिन दवाओं की सूची सुशांत मामले में सामने आ रही है, उन्हें मैं गंभीर स्थिति की दवा नहीं कहूंगा। अगर मनोचिकित्सक कहते हैं कि दवाएं न लेने से कुछ भी हो सकता है, तो उनकी मात्रा से यह पता चलना चाहिए कि जो मात्रा दी जा रही थी, वह गंभीर बीमारी में दी जाती है। आज अवसाद आम हो गया है, रोजगार के लिए लोग परेशान हैं। ऐसे में, अगर कोई मनोबल बनाए रखने के लिए कोई दवाई लेता है, तो इसका मतलब यह नहीं कि उसे गंभीर अवसाद की बीमारी है। सुशांत के व्यवहार से नहीं लगता कि उन्हें गंभीर बीमारी थी। 

दूसरी चर्चा चल रही है कि बाइपोलर होने की। वैसे सुशांत को दी जा रही जो दवाएं मैंने देखी हैं, उनमें कोई भी बाइपोलर बीमारी की नहीं है। क्या दो-तीन साल के दौरान उनके किसी भी वीडियो में दिखता है कि सुशांत की स्थिति बाइपोलर थी? जो बाइपोलर होता है, वह साफ नजर आ जाता है। इसमें इंसान कमा भले दस रुपये रहा हो, लेकिन करोड़ों की योजनाओं पर काम करके खुद को मुसीबत में डाल लेता है। मेनिया में इंसान को मूड्स स्टेबलाइजर दवा भी दी जाती है, जिससे भावना में ज्यादा उतार या चढ़ाव न हो। सुशांत की दवाओं में कोई ऐसी नहीं दिखती, जिसे मूड्स स्टेबलाइजर कहा जाए।

आजकल बच्चे कई बार ज्यादा आक्रामक ढंग से हठ करते हैं, मां-बाप के लिए दुविधा वाली स्थिति हो जाती है। यहां तय करना होगा कि यह अवसाद है या भावनात्मक असंतुलन। ऐसी स्थिति में कोई हो, तो आसपास के लोगों को सजग हो जाना चाहिए। विशेषज्ञों को फैसला लेना चाहिए कि किस स्तर का अवसाद है और क्या उपचार किया जाए। 99 प्रतिशत मामलों में गंभीर अवसाद नहीं, क्षणिक आवेश होता है। 

आज जरूरी है कि कभी अपने मन में मरने के विचार को नहीं आने दें। बुरा लगा है, एक दिन खाना मत खाइए, नाराजगी को दूसरी तरह से जाहिर कीजिए। किसी को गुस्से में भी कभी मत बोलिए कि जा, मर  जा। आजकल फैशन हो गया है, लोग एक-दूसरे की नकल करने लगते हैं। एक आत्मघात से कई लोग दुष्प्रेरित होते हैं, जबकि ऐसा करना कतई समाधान नहीं है। बेहतर यही है कि नकल कीजिए, तो अच्छी चीजों की, बुरी चीजों या आदतों की नहीं।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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