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*©️डॉ सुरेश पाण्डेय, नेत्र सर्जन, कोटा*
आज 16 अक्टूबर को नीट का रिजल्ट आया है। शोएब आफताब एवं आकांक्षा सिंह ने नीट में 720 में से 720 अंक प्राप्त किए हैं। इन दोनों को एवम् नीट में सफल होने वाले सभी विद्यार्थियों को बहुत बहुत बधाई, सफल चिकित्सक बनने एवम् उज्ज्वल भविष्य की हार्दिक शुभकामनाएं। अभी मैंने शोएब का इंटरव्यू भी देखा, कार्डियॉलजिस्ट बनकर देश सेवा करने, रोगियों का निशुल्क इलाज करने, नई खोज करने की प्रबल इच्छा मन में तरंगे मार रही हैं। बेशक दोनों अति प्रतिभाशाली मेधावी स्टूडेंट रहें हैं अन्यथा सौ प्रतिशत अंक (720/720) लाना कोई हंसी खेल नहीं है। इन दोनो को डॉक्टर ही बनने का जूनून था अन्यथा इनके लिए प्रशासनिक अधिकारी बनने के द्वार भी खुले थे।
एम बी बी एस में एडमिशन के बाद मेडिकल कॉलेज में पांच वर्ष का कोर्स, एक वर्ष की इंटर्नशिप, तीन वर्षों का पीजी कोर्स, उसके बाद तीन वर्षों तक डी एम या एम सी एच की डिग्री, कुल 12 वर्ष का लम्बा समय एक वनवास से कम नहीं है। बारह वर्षों की कठिन साधना के बाद कम से कम पांच वर्षों तक डॉक्टर्स को कड़ी मेहनत करनी होती है जब लगभग 35 वर्ष की आयु के लगभग उनकी समाज/सोसाइटी में कुछ कुछ पहचान बनने लगती है।
हर चिकित्सक अपने पास आए रोगी का इलाज या ऑपरेशन पूरी निष्ठा के साथ करता है। परतुं उपचार के बाद बीमारी का आउटकम या रिज़ल्ट कुछ रोगियों में अप्रत्याशित भी आ सकता है। पूरा प्रयास करने के बाद भी आपरेशन सफल नहीं होने एक बीमारी ठीक नही होने के अनेकों कारण हो सकते हैं। किसी भी गंभीर बीमारी के इलाज करते समय, अथवा अति जटिल ऑपरेशन करते समय यदि रोगी को बचाना संभव नहीं हो सके तो जन साधारण की संशय भरी मानसिकता हमेशा डॉक्टर्स को ही दोषी मानती है । पिछले कुछ वर्षों से देश में डॉक्टर्स पर होने वाली हिंसा, अस्पतालों में होने वाली तोड़फोड़, डॉक्टर्स को लुटेरे, हत्यारे, बेरहम जैसे शब्दों के संबोधन के साथ समाचार पत्रों में हेडलाइन आपने भी पढ़ी होगी डॉक्टर्स हमेशा से सॉफ्ट टारगेट रहें हैं क्योंकि “भय बिन होय न प्रीत गोसाईं ” नामक सूत्र के अनुसार वे आपकी जान बचाने में मदद करते हैं उनके पास आपको डराने धमकाने आपका नुकसान करने की क्षमता नहीं है।
डॉक्टर्स का सोसायटी में कम होते सम्मान को देखते हुए आने वाले दस वर्षों के बाद आज नीट को क्रैक करके मेडिकल कॉलेज में प्रवेश लेने वाले मेधावी मेडिकल छात्रों का भविष्य उज्जवल होगा, यह कहा नहीं जा सकता।
समूचा विश्व इसे समय कोविड 19 वैश्विक महामारी से जूझ रहा है। भारत में कोविड 19 नामक अदृश्य विषाणु से संघर्ष करते करते 550 से अधिक डॉक्टर्स/हैल्थ केयर वर्कर्स अपने प्राणों की आहुति दे चुके हैं। कोरोना काल खण्ड के दौरान आज भी आपको अनेकों मित्रों से सुनने को मिल सकता है कि हमने तो उनको अच्छी हालत में अस्पताल में भर्ती करवाया था। डॉक्टर्स/अस्पताल की लापरवाही से उनको बचा पाना संभव नहीं हो पाया। एक सौ अड़़तीस करोड़ जनसंख्या वाले इस देश की चिकित्सा व्यवस्था हैल्थ बजट के अभाव में आरंभ से ही लचर रही है। क्योंकि हमारी सरकारों ने हैल्थ में वैल्थ इन्वेस्ट नहीं किया। हमारा देश जी डी पी का मात्र एक प्रतिशत हैल्थ केयर पर खर्च करता है जो भूूटान, श्री लंका जैसे देशों से भी कम है।
हमारे देश की सत्तर प्रतिशत जनता गावों में निवास करती है जहां बेहतर चिकित्सा सुविधाएं उपबलध नहीं है। शहरों में जहां हॉस्पिटल एवम् डॉक्टर्स उपलब्ध हैं वहां जनता में हैल्थ के प्रति पूरी जागरूकता नहीं है इसीलिए कई बार देखा गया है कि जब बीमारी बढ़ते बढ़ते एडवांस या लाइलाज श्रेणी में आ जाती है तब उनको इलाज करवाने कि प्रायोरिटी समझ में आती हैं।
हार्ट डिजीज, डायबिटीज एवं हाइपरटेंशन आदि रोगों में हमारा भारत देश विश्व के अन्य देशों को पीछे छोडते हुए हम नंबर वन पोजिशन पर पहुंचते जा रहे हैं। देशवासियों को रोज रोज एलोपैथी मेडिसिन लेने के झंझट से बचने के लिए योगा, प्राणायाम, काढ़ा पैथी में अधिक विश्वास होता जा रहा है। डायबीटिज, हाइपर टेंशन की एलोपैथिक दवाओं को बन्द करवाकर वैकल्पिक दवाओं का बढ़ता उपयोग, योग गुरुओं की बिजनेस सफलता के साथ साथ आम आदमी की सामाजिक प्रतिष्ठा का रूप लेता जा रहा है। अज्ञानता वश जब बीमारी बढ़ते बढ़ते इसके कारण कॉम्प्लिकेशन होतें हैं तो मजबूरन हम एलोपैथी की शरण में जाकर प्राइवेट अस्पताल में भर्ती होना प्रिफर करते हैं। आई सी यू में डॉक्टर भगवान के समान प्रतीत होता है, वार्ड में शिफ्ट करने पर वह इंसान हो जाता है एवम् डिस्चार्ज के समय प्राइवेट अस्पताल के बिल को चुकाते समय डॉक्टर या अस्पताल प्रशासन एक डाकू, लुटेरा प्रतीत होता है। मौत के मुंह से बचा कर नई जिंदगी देने के बाद भी अस्पताल का कुछ हज़ार का बिल आदि चुकाने में अच्छे अमीर भी डिस्काउंट करने या सिफारिश करते देखे जा सकते है चाहे ये अमीर अपने बच्चों की शादी में एक/दो करोड़ रुपए ख़र्च कर सकतें है। समय के साथ साथ धीरे धीरे हमारी सोच भी बीमार होती जा रही है शायद इसीलिए डॉक्टर्स को लुटेरे, सफेद कोट में हत्यारे आदि संबोधन देना भी अब आम होता जा रहा है जैसा की राजस्थान के नेता प्रतिपक्ष ने कुछ दिनों पहले डॉक्टर्स को “हत्यारा” कहा, जिसके विरोध में इंडियन मेडिकल एसोसिएशन राजस्थान द्वारा आज 16 अक्टूबर को समूचे राजस्थान में “काला दिवस” ऑब्जर्व किया गया।
आज फ़्लैश बैक में मैं जब 35 वर्ष पहले की बात सोचना हूं (वर्ष 1986 में जब मैंने बिना कोचिंग प्री मेडिकल टेस्ट में चयनित होकर मेडिकल कॉलेज, जबलपुर में प्रवेश लिया था) तो इन युवा नीट एग्जाम में शत प्रतिशत अंकों को प्राप्त कर कीर्तिमान बनाने वाले कर्णधारों को लेकर मेरी चिंता और बढ़ जाती है। 1986 में डॉक्टर्स के साथ मारपीट की घटनाएं नहीं के बराबर होती थीं। अब हर वर्ष सरकारी अस्पतालों, मेडिकल कॉलेज अस्पतालों में भी ट्रेनी (इंटर्न/रेजिडेंट) डॉक्टर्स के साथ मारपीट/वायलेंस की घटनाएं बहुत तेजी से बढ़ती जा रही है। सोशल मीडिया के माध्यम से अब डॉक्टर्स को भी बदनाम/ब्लैक मेल किया जा रहा है जिसका परिणाम केरल के युवा ऑर्थोपेडिक सर्जन डॉ अनूप कृष्णा द्वारा हाल में दुखद समाचार (सुसाइड) के रूप में सामने आया है।
कोराना काल खण्ड के दौरान आज का युग धर्म है कि देश को चलाने वाली सरकारें एवं देश की जनता हैल्थ, हाइजीन, हॉस्पिटल को प्रायोरिटी में रख कर जागरूकता बढ़ाते हुए स्वस्थ जीवन जीने का सबक ले सकें। देश की सरकार हैल्थ केयर पर जी डी पी का एक प्रतिशत नहीं वरन् तीन से पांच प्रतिशत तक ख़र्च करें। सरकारी अस्पतालों का इंफ्रा स्ट्रक्चर, एवम् मेन पॉवर सुदृढ़ बनाते हुए चिकित्सको को सरकारी नौकरियों में बेहतरीन इंफ्रा स्ट्रक्चर एवं अच्छी तनख्वाह दी जावे जिससे सरकारी अस्पतालों में डॉक्टरों को प्रॉमिसिंग करियर का मार्ग प्रशस्त हो सके। आशा है कि कोरोना काल खण्ड जल्द ही समाप्त होगा। देश की चिकित्सा व्यवस्था में संजीवनी का संचार होगा। जन मानस में व्याप्त संदेह, भ्रांतियों का तिमिर छटेगा एवम् चिकित्सकों के सम्मान के दिन भी पुनः लौटेंगे। इसके लिए चिकित्सकों को भी केयर, कंपैशन, कम्युनिकेशन, कोमपेटेंस पर ध्यान देना होगा।
©️ *डॉ सुरेश पाण्डेय* नेत्र सर्जन, सुवि नेत्र चिकित्सालय एवम् लेसिक लेज़र सेंटर, कोटा, राजस्थान।
लेखक: सीक्रेट्स ऑफ सक्सेसफुल डॉक्टर्स, एवम् हिप्पोक्रेटिक ओडिसी।
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