पारिवारिक मित्र से व्यवसायी चिकित्सक का तीन दशकों का सफर
डाक्टर दिवस 1 जुलाई पर विशेष
पिछले तीन दशकों के दौरान डाक्टर के सामाजिक सम्मान में जो गिरावट आई है, शायद ही किसी अन्य प्रोफेशन में ऐसा हुआ हो। जिस समाज में डाक्टर को भगवान का दर्जा दिया जाता रहा हो उसी को शैतान मान कर; उसके खिलाफ नारे बाजी, अपशब्द, गिरफ्तारी की मांग, नर्सिंग होम में तोड़-फोड़ तथा व्यक्तिगत आक्रमण इत्यादि की नौबत आना वास्तविकता में चिन्तन का विषय है।
सफल व्यवसायी डाक्टर की अगली पीढ़ी भी इस व्यवसाय को अपनाने के लिए इच्छुक नहीं हैं।
इस नजरिए के पीछे क्या कारण रहे होंगे। इन सभी कारणों पर प्रकाश डालने की दिशा यह लेख एक प्रयास है।
समाज ने डाक्टर व्यवसाय को एक ‘सर्विस परोवाइडर’ के रूप में देखना शुरू कर दिया है। जैसे कि पैसे दो और काम करवाओ। अगर काम में देरी या कोई कमी है तो तुरन्त शिकायत करों, नहीं संतुष्ट; तो हरजाने की मांग करो और वह पूरी नहीं हुई ; तो तैश में आ जाओ, झगड़ा करो और हर कीमत में बिना सोचे समझे, तोड़-फोड़, गाली गलौच व हाथापाई करो।
इस घटनाक्रम से चिकित्सक तथा उनके परिवार वाले अच्छी तरह वाकिफ होते है तथा कभी कभार निजी अनुभव भी कर चुके होते हैं। ऐसे में अगली पीढ़ी के द्वारा इस व्यवसाय को अपनाने का प्रश्न ही नहीं उठता।
अगला पहलू है,
जीवन जीने की गुणवता का, 24 घण्टे में से 10 से 18 घण्टे काम करना, वह भी तनावपूर्ण परिस्थितियों में। जहां जीवन -मरण का प्रश्न, हर क्षण प्रश्न – सूचक बना रहता है।
विज्ञान ने कितनी ही उन्नति क्यों न की हो ; आज भी कई रोग ऐसे है, जिनका पूर्ण इलाज हमारी चिकित्सा प्रणाली में नहीं है। लेकिन रोगी व उसके परिजन यह मानकर चलते है कि, अमुक रोगी के ठीक न होने का कारण, विज्ञान में ज्ञान की कमी नहीं, बल्कि एक डाक्टर विशेष या उसकी टीम की लापरवाही ही है।
मीडिया में नित नये वैज्ञानिक चिकित्सा अविष्कारो की
जानकारी देना अच्छी बात है; परन्तु कभी-कभी इससे कुछ व्यक्ति विशेष को; ऐसे लगने लगता है कि, जैसे कि ये सभी नए अविष्कार, उसी दिन से वास्तविक मैडिकल प्रैक्टिस में हर जगह लागू हो जाएंगे। ऐसे में उम्मीद कुछ ज्यादा ही लगा ली जाती है। डाक्टर उस उम्मीद या मापदण्ड पर खरे नहीं उतरते, तो रोगी व उसे परिजनों को निराशा हाथ लगती है तथा डाक्टर पर रोष आना स्वाभाविक है। इस प्रकार तनावपूर्ण स्थिति में काम करने से चिकित्सक का खुद का शारीरिक क्षय भी होता है तथा मानसिक सन्तुलन पर भी असर पड़ता है। नाजुक स्थिति में निर्णय लेने की क्षमता भी प्रभावित होती है। किसी प्रकार के निर्णय लेने से पहले उसे रोगी व रिशतेदारों के कोपभाजन तथा बाद में कोर्ट कचहरी के चक्कर लगाने की स्थिति को भी ध्यान में रखना पड़ता है। क्या कोई व्यक्ति ऐसी स्थिति में सही निर्णय ले पाएगा ?
एक अन्य पहलू है; डाक्टर के बदलते कार्य स्थल का । जहां पहले केवल एक निरीक्षण कक्ष, साथ में छोटी- सी डिस्पैन्सरी तथा एक दो बिस्तर ही निजी चिकित्सक के कार्य स्थल होते थे । आज उसकी जगह ऊंची भव्य इमारतों ने ले ली है। स्टार होटलस की तरह सभी सुविधाओं से सम्पन्न नर्सिंग होमज का प्रचलन हो गया है। वातानुकूलित प्राईवेट रूम में जहां फ्रिज, टीवी, फोन तथा अन्य सुविधाएं है। वहीं व्यक्तिगत परीक्षण का स्थान एम आर आई स्कैन, सी0टी0 स्कैन , सोनोग्राफी तथा पैट स्कैन ले रहे है। सर्जनों की दक्षता को रोबोट से रिपलेस करने की कोशिशे जारी हैं। ऐसे में यह अनुमान सहज लगाया जा सकता है कि; जब कोई व्यक्ति इतनी सुविधाओं से लैस, हस्पताल में इलाज करवाएगा, तो खर्चा भी उसी अनुपात में काफी ज्यादा होगा।
प्राईवेट चिकित्सा क्षेत्र में परामर्श फीस का मुददा अपने आप में चर्चा का विषय है। उधर रोगियों व उनके रिशतेदारों की सोच का नजरिया भी तीन दशकों में काफी बदला है। सुविधाएं तो वह सभी चाहते हैं, लेकिन जब शुल्क की बात आती है, तो उनके मन में एक संकोच पैदा हो जाता है। उनके लिए अनुमान लगाना कि, किसी प्रकार की सुविधा का कितना शुल्क जायज है, बहुत कठिन है। न ही इसके लिए कोई तय मापदण्ड है। ऐसे में असंमजस की स्थिति पैदा होना स्वाभाविक है। क्योंकि हमारे देश में चिकित्सा बीमा सुविधा का प्रचलन बहुत सीमित है। इसलिए आमतौर पर प्राईवेट हस्पतालों में होने वाला सारा खर्च रोगियों को स्वयं उठाना पड़ता है। रोगी व डाक्टर के बीच खर्च को लेकर खटास की स्थिति उत्पन्न होने का यह भी एक कारण है। यदि सभी वर्गों के लोग चिकित्सा बीमा प्रणाली को अपनाए तथा बीमे की दरे कुछ कम कर दी जाए तो इस स्थिति से निपटना आसान होगा, या फिर हर परिवार कुछ पैसा केवल स्वास्थ्य खर्च के लिए नियमित रूप से अलग से बचा कर रखें, ताकि आपातकाल स्थिति मे उस राशि का इस्तेमाल अस्पताल का बिल अदा करने में किया जा सके।
आज डाक्टरज दिवस पर आम जन मानस के लिए यह संदेश है कि; चिकित्सक समाज का एक अनिवार्य अंग है। अगर आपको चिकित्सक के रोग निदान या ईलाज के बारे में कोई संदेह है; तो उसे डाक्टर से समय लेकर विस्तार से समझ लें। मन में बात रखने से भ्रम बढ़ता है। अपने चिकित्सक के साथ अच्छे सम्बन्ध बनाये। यह सब संयम एवं प्रेम पूर्वक ही संभव है। शिष्टाचार
की ‘लक्षमण रेखा’ , को न लांघे, तभी हम एक स्वस्थ समाज का निर्माण कर पायेंगे।










