. “खटोला यहीं बिछेगा“
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(©️ डा० डी०के०वर्मा)
सरकारी डाक्टरों की रिटायरमेंट की उम्र सत्तर वर्ष करने की तैयारी चल रही है। जिन लोगों को लगता हो, कि सरकार का ये निर्णय बेहद टुच्ची और हिटलरशाही वाली हरकत है, वे लोग कृपया अपनी सोच बदल लें। गाड़ियों का रजिस्ट्रेशन खत्म हो जाता है, तो पांच साल का एक्सटेंशन मिलता है कि नहीं ? तो फिर ? वैसे रिटायरमेंट की उम्र पिचहत्तर या अस्सी या सौ सवा-सौ साल भी हो सकती थी, पर नहीं हुई। यहां राजधानी में बैठे अफसरों की बुद्धिमानी की दाद देनी पड़ेगी कि रिटायरमेंट की उम्र उन्होंने सत्तर वर्ष ही रखी। गूगल करने पर पता चला कि अपने यहां आदमी की ‘एवरेज-लाइफ’ सत्तर दशमलव पन्द्रह वर्ष ही है। इसीलिए रिटायरमेंट की उम्र सत्तर वर्ष रखी गई है। अब जिसको बहस करना हो, वह दशमलव पन्द्रह वर्ष पर बहस करे, सत्तर पर न करे। बुढ़ापे में घर बैठकर ‘खों खों’ करने से अच्छा है कि अस्पताल में बैठकर सरकार पर’खौं खौं’ करें।अब अगर नए डाक्टर न मिलें, तो इसके अलावा कोई और चारा हो तो बताएं। लेकिन यहां भी एक समस्या है। एक अध्ययन से पता चला है कि, डाक्टरों की उम्र, जनरल पब्लिक से कम है। जब डाक्टर साहब लोग पब्लिक से पहले ही निपट लेंगे, तब काम कैसे चलेगा ? ये टेंपरेरी जुगाड़ है। परमानेंट तरीका ये है कि डाक्टरों को सरकारी नौकरी की तरफ लुभाया जाए। इसके लिए सरकार को निम्नलिखित छह-सूत्रीय सुझाव पेश हैं-
(1)- ‘जय संतोषी मां’ टाइप की, तीन घंटे की एक फिल्म बनाई जाए। फिल्म का कांटेंट कुछ-कुछ ऐसा होना चाहिए, जैसा नीचे बताया गया है। फिल्म के शुरुआत में, नारद मुनि और काकभुशुण्डि जी को स्वर्गलोक में बैठे दिखाया जाए। फिर नारद मुनि पूछें कि “हे काकभुशुण्डि जी ! इस कलियुग में पाप-कर्म अत्यंत बढ़ गए हैं। ऐसे में मोक्ष का क्या उपाय है ? कृपया विस्तार से कहें।” तब काकभुशुण्डि जी कहें-“हे मुनिश्रेष्ठ ! आपका संदेह दूर करने के लिए मैं आपको साक्षात मृत्यु लोक ले चलता हूं।” फिर तड़् से सीन बदले, और दो डाक्टर दिखाए जाएं। पहला डाक्टर मरियल सा हो और उसकी शक्ल अमरीश पुरी जैसी हो। उसे प्राइवेट-प्रैक्टिस करते हुए दिखाया जाए। दूसरा डाक्टर लम्बा-चौड़ा हो और उसकी शक्ल फिल्म शोले के ए०के०हंगल जैसी हो, और उसे सरकारी डाक्टर दिखाया जाए। लटकों झटकों का इस्तेमाल कर, किसी तरह फिल्म को तीन घंटे खींचा जाए। फिर फिल्म के क्लाइमेक्स में, हंगल-टाइप वाले डाक्टर को, अपनी क्लीनिक में कुर्सी पर जिन्दा बैठे दिखाया जाए। फिर तीन देवदूत आएं और उससे कहें कि “हे परमार्थी ! हे जीवनदाता ! तुम्हारे निस्वार्थ परोपकार के कारण, परमात्मा के आदेशानुसार हम तुम्हें सशरीर स्वर्गलोक को ले जाने के लिए आए हैं।” फिर तीनों देवदूतों के साथ उस डाक्टर को उड़न-खटोले पर बैठ कर आसमान की तरफ उड़ता दिखाया जाए। उधर अमरीश पुरी जैसी शक्ल के प्राइवेट-प्रैक्टिस करने वाले डाक्टर को भी उसकी क्लीनिक में जिन्दा बैठे दिखाया जाए। फिर उसके पास तीन यमदूत आएं, और ये कहते हुए कि “हे नीच ! तूने जीवन भर दूसरों को लूटा है इसलिए तुझे नर्कलोक में जाना होगा” उसके हलक में हाथ डाल कर, उसकी आत्मा को खींचकर बाहर निकाल लें और आत्मा को लेकर फरार हो जाएं। इसके बाद सीन बदले और नारद जी हाथ जोड़कर, काकभुशुण्डि जी से कहें-“हे नाथ ! आपकी कृपा से मैंने मोक्ष का रहस्य जान लिया है।”
(2)- डाक्टर के इन्टरव्यू के लिए, कमीशन में चार लोग बैठाए जाएं। उनमें एक स्पेशलिस्ट और तीन काउंसलर हों। काउंसलरों की शक्ल ‘चुपके-चुपके’ वाले
ओम प्रकाश जैसी हो, और जो झूठ बोलने और मक्कारी करने में सिद्धहस्त हों। स्पेशलिस्ट का काम, इन्टरव्यू को इन्टरव्यू जैसा दिखाने का हो। बीच-बीच में स्पेशलिस्ट, डाक्टर से कुछ ऐसे सवाल पूछे-“अच्छा बताओ ! आदमी की कितनी आंखें होती हैं ?” “अच्छा बताओ ! सुनने के लिए आदमी किस अंग का इस्तेमाल करता है ?” उधर काउंसलर, डाक्टर को फुसलाए-“कर लो भैया ! एकदम लल्लनटाॅप नौकरी है। समझो कि ऐश ही ऐश है।” फिर वो साफ़ झूठ बोले- “हम तो अपने दोनों लड़कों को बायोलॉजी ही दिलवाए हैं।” तब तक दूसरा काउंसलर डाक्टर को बरगलाने में जुट जाए-“अच्छी तनख्वाह है। रहने के लिए बंगला और चलने के लिए सरकारी गाड़ी मिलेगी ही मिलेगी। बढ़िया चांप के टी०ए० डी०ए० अलग से। एसडीएम के रैंक की नौकरी है, डायरेक्ट क्लास टू के अफसर। कोई चूं नहीं कर सकता। और क्या चाहिए ?” तब तक तीसरा काउंसलर बीच में कूदे-“भैया जी ! आराम ही आराम है। जहां चाहो वहां मनमर्जी की पोस्टिंग मिलती है। भोले बाबा की पिंडी की तरह जहां चाहे वहां धर गए। जब तक तुम्हारी मर्ज़ी न हो, कोई हिला भी न पाएगा। रेलमपेल छुट्टियां अलग से। और ऊपर वाले भी बहुत सपोर्ट करते हैं इस विभाग में। कोई पूछने वाला नहीं है।” तीनों काउंसलर, आनलाइन ठगी करने वालों की तरह तब तक जाल फेंकें, जब तक कि डाक्टर फंसकर, नौकरी के लिए खुशी-खुशी ‘हां’ न कर दे।
(3)- एक प्रोपेगैंडा चलाया जाए, जिसमें शहरों में हर चौराहे पर बड़े-बड़े पोस्टर और होर्डिंग्स लगाए जाएं। पोस्टर में चिकने-चुपड़े चेहरे वाला एक डाक्टर, आला गले में लटका कर रिवाल्विंग चेयर पर बैठा दिखे और उसके एक तरफ रिचा चड्ढा और दूसरी तरफ सनी लियोनी, नर्सों की ड्रेस में खड़ी होकर उस डाक्टर को मुस्कुराते हुए निहारती दिखें। उसी पोस्टर में एक किनारे एक मुनीम टाइप का आदमी, हाथ जोड़े खड़ा दिखाया जाए, जिसके हाथ में दो-हजारी नोटों की गड्डी भी हो। पोस्टर के नीचे बड़े-बड़े सुनहरे हर्फों में लिखा हो-“अपना जीवन सफल बनाएं–सरकारी डाक्टर बनें“।
(4)- एलआईसी की सफलता से प्रेरणा लेते हुए, डाक्टरों की भर्ती के लिए, एजेंट रखे जाएं, जिन्हें एक डाक्टर भर्ती कराने पर ‘इंसेन्टिव’ देने की व्यवस्था हो, वैसे ही जैसे पुराने जमाने में डाकुओं को पकड़वाने वाले को ईनाम दिया जाता था।
(5)- इधर नामों को बदलने और सुधारने पर बड़ा जोर है। नाम बदल देने भर से, पूरा का पूरा परसेप्शन बदल जाता है, और चाहे कुछ बदले या न बदले। जैसे विकलांगों के सम्मान में ‘स्पेशली एबिल्ड’ या ‘दिव्यांग’ शब्द का प्रयोग किया जाने लगा है। चूंकि ‘चिकित्साधिकारी’ शब्द की असलियत उजागर हो चुकी है और इसका भौकाल टांय-टांय फिस्स हो चुका है, लिहाजा उसी तर्ज पर सरकारी डाक्टरों के लिए, ‘चिकित्साधिकारी’ शब्द की जगह ‘महाचिकित्साधिराज’ या ‘डिवाइन-डाक्टर’ जैसे वजनी शब्द का इस्तेमाल शुरु किया जा सकता है।
(6)- लास्ट बट नॉट लीस्ट, साठ साल से ऊपर के डाक्टरों को, सरकारी च्यवनप्राश चाटना अनिवार्य कर दिया जाए जिससे डाक्टर लोग च्यवन ऋषि की तरह फिर से जवान होकर, सरकार को ज्यादा से ज्यादा अपनी सेवाएं दे सकें।
पाठकगणों के पास यदि कोई और सुझाव हो, तो अपनी तरफ से इसमें जोड़कर सरकार की मदद करें और पुण्य के भागी बनें।










