” केंचुल “
साहब अपने ऑफिस में, आरामदेह कुर्सी पर बैठे, आगे-पीछे झूल रहे थे । साहब पिछले बीस सालों से इसी तरह झूले जा रहे हैं । साहब बीस साल पहले तक, इलाज करने वाले डॉक्टर हुआ करते थे । फिर साहब को सरकार ने प्रशासनिक काम सौंप दिया, तबसे साहब इसी काम मे लगे हैं । साहब पच्चीस साल पहले, मेडिकल कॉलेज से डाक्टरी पढ़ कर, ताजा-ताजा निकले थे । उनके निकलते ही, प्रादेशिक लोक सेवा आयोग ने उन्हें लपक कर पकड़ लिया, और वैसे ही भर्ती कर लिया, जैसे विश्व युद्ध के समय सिपाहियों को भर्ती किया जाता है । साहब को, एक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में डॉक्टर की कुर्सी पर बैठा दिया गया । साहब शुरू में पांच साल तक, सरकारी दवाइयों और सरकारी ढंग से, मरीजों का इलाज करते रहे, जिसके बारे में मरीजों का कहना था कि- ” साहब, आप हर मरीज को वही लाल नीली पीली गोली थमा देते हैं, मर्ज चाहे कोई भी हो । ” इस पर साहब कहते – ” भैया, हमने तो सरकार को कई बार चिट्ठी लिखी, कि हमारे अस्पताल में धानी, भूरी, मैजेन्टा, सी-ग्रीन और सतरंगी रंग की गोलियां भी भेजी जायें, पर सरकार सुनती ही नही । सरकार भी क्या करे ? सारी अच्छी दवाइयां तो अफसर लोग खा जाते हैं । जिस दिन सरकार, अच्छी वाली दवाइयां भेजने लगेगी, आप लोगों को वो भी मिल जाएंगी । अब हम इसमें क्या कर सकते हैं । ” गांव वाले साफ समझ जाते, कि साहब उन्हें चूतिया बना रहे हैं । फिर लगभग पांच साल बाद, साहब उसी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र के अधीक्षक हो गए और मरीजों, गोलियों और आला से, लैला-मजनू की तरह जो अलग हुए, तो फिर कभी मिल न सके । साहब प्रशासनिक काम देखने लगे । कुछ साल बाद, साहब डिप्टी सीएमओ हो गए, और उनको झोलाछाप डॉक्टरों को देखने का काम सौंप दिया गया । साहब ने मन लगाकर काम किया, और झोलाछाप डॉक्टरों का पक्का इलाज किया । उनके उत्तम इलाज से, जिले के झोला-छाप डाक्टरों का, और उसके पुण्य से खुद उनका स्वास्थ्य, बहुत बढ़िया हो गया । फिर साहब ने पीछे मुड़कर नहीं देखा और कई जिलों मे, मलेरिया, टी बी, कुष्ठ रोग जैसे उप-विभागों मे, प्रशासनिक काम देखते-देखते, वर्तमान मे, जिला अस्पताल की, सबसे बड़ी वाली कुर्सी पर बैठ गए । साहब ने पिछले बीस सालों से, किसी परचे पर, कोई दवाई नहीं लिखी थी । नतीजा ये हुआ, कि साहब को फुन्सी की दवाई का नाम भले ही ना याद हो, पर ‘औरतों को लगाई जाने वाली कापर-टी का नाम और वो कितने दिनों तक काम करती है’, या ‘पल्स पोलियो के एक राउंड के लिए कितना बजट आता है’, या ‘आशा-बहुओं को महीने मे कितनी नसबन्दी करानी है’ या ‘डाक्टर लोग कौन-कौन सी छुट्टी लेने के लिए अधिकृत हैं’, वगैरह-वगैरह टाइप की, नॉन-मरीजीय बातें, अच्छे से पता थीं । साहब अब डॉक्टर कम और प्रशासक ज्यादा हो गए । साहब जिस जिला अस्पताल में थे, उसमें कुल बारह डॉक्टर थे । इनमें से एक डॉक्टर को, ‘प्रशासनिक कार्यों मे सहयोग’ के लिए साहब ने, स्वयंसेवक के बतौर, अपना सहायक बना रखा था । ये डाक्टर साहब, ‘साम-दाम-दण्ड-भेद’ मे से, साम-दाम-दण्ड मे कमजोर होने के कारण, चौथी वाली विद्या के, घनघोर विद्वान थे, इसलिए अन्य सभी डाक्टरों के मना करने के बावजूद, साहब के पैर, उनके घुटने पर हाथ रखकर छूते थे । वे साहब के कान में, अस्पताल मे हुई हर घटना का बारीकी से, इतना सजीव और सचित्र विवरण प्रस्तुत करते थे, कि अगर साहब खुद अपनी आंखों से उस घटना को देखते, तो भी वे, वह सब कुछ न देख पाते, जो अकेला उनका कान देख लेता । सिर्फ इसी कारण से, बाकी के डॉक्टर, पीठ पीछे उन्हें बहुत गरियाते थे, और यथा-सम्भव, उनसे सुरक्षित दूरी बना कर रखते थे । साहब इस समय प्रशासक वाली कुर्सी पर बैठे, आंखें बंद किए, आगे पीछे झूल रहे थे ।
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सुबह के नौ बज रहे थे, कि तभी जिला अस्पताल मे मौजूद, सभी दसों डॉक्टर, एक साथ साहब के कमरे में दाखिल हुए । आवाज सुनकर साहब ने अपनी दैहिक आंखें खोली, और चश्मा लगाकर सबको देखा । और फिर सब का बड़ी आत्मीयता से, स्वागत सा किया – ” आइए आइए । ” ‘सहायक’ जी के अलावा, सभी डॉक्टर, साहब के कमरे में पड़ी पन्द्रह-बीस कुर्सियों में बैठ गए । ‘सहायक’ जी नहीं बैठे, और अन्य सभी डॉक्टरों के, पहले से मना किये जाने के बावजूद, उन्होंने अधीक्षक के पैरों के पास जाकर कुछ ऐसा उपक्रम किया, कि देखने वालों को भ्रम हो जाये, कि शायद उनकी जेब से कुछ गिर गया है । उनके अकेले के द्वारा की गई इस कार्यवाही से, बाकी के डॉक्टर असहज हो गए । साहब दूर, और पास का भी, देखने के लिए मोटा चश्मा लगाते थे । उन्होंने चश्मा लगाकर गौर किया कि, चार डॉक्टर, जिन्हें मरीजों के अलावा हर चीज मे दिलचस्पी है, और जो वामपंथी विचार धारा से प्रभावित हैं, और जिनको अस्पताल प्रशासन से कुछ न कुछ शिकायत बनी रहती है, आगे की पंक्ति में बैठे हैं । उसके पीछे वाली पंक्ति में तीन ऐसे डॉक्टर बैठे हैं, जो अस्पताल मे घटी सम-सामयिक घटनाओं को, समाचार के अलावा कुछ नहीं मानते थे । दूसरी पंक्ति की, दो कुर्सियां खाली रह गई थीं । तीसरी पंक्ति में दो ऐसे डॉक्टर बैठे हैं, जो मरीजों के अलावा, बाकी सब खबरों को अफवाह समझते थे, और जो इस मीटिंग मे, सिर्फ कोरम पूरा करने के लिए, जबरदस्ती पकड़ कर लाए गये थे । साहब को समझने मे कोई दिक्कत नही हुई, कि उन्हें आगे बैठे सिर्फ चार डाक्टरों से ही बातचीत करनी है । उम्मीद के खिलाफ, ‘प्रशासनिक सहयोग’ वाले डाक्टर साहब, साहब के चरणों के पास न बैठकर, चौथी पंक्ति में, अकेले स्वयं विराजमान थे । साहब को, उनकी कृपा से, सुबह हुई घटना के बारे मे, पहले से सब कुछ इतना पता था, कि सारे डाक्टर मिलकर भी उतना न बता पाते । फिर भी, बात-चीत मे कोई आवश्यक बिन्दु छूट न जाये, इसलिए उन्होंने पूछा – ” हां हां बताइए, क्या बात है ? ” उनके इतना पूछने भर से, डाक्टरों के बीच कानाफूसी शुरु हो गई । लगभग आधे मिनट की कानाफूसी के बाद तय पाया गया, कि जिसके साथ घटना हुई है, वही बताए । साथियों की इस बेवफाई पर, घटना-युक्त डाक्टर ने, अपनी प्रबल इच्छा जताई – ” सर, एफ आई आर करनी है । ” साहब ने इसे मजाक मे लिया – ” मैने ऐसा क्या कर दिया, भैया ? ” भुक्त भोगी डाक्टर, इस मजाक से कुछ सहज हुए, और उन्होंने अपनी वेदना को, प्रार्थना-पत्र वाले अंदाज मे बयान किया, जिसका निचोड़ ये था, कि ” महोदय, इमरजेन्सी ड्यूटी के दौरान, एक घायल मरीज को, डाइक्लोफेनैक का इंजेक्शन लगाने के बाद भी, जब दर्द पूरा खत्म नही हुआ, तो मरीज के साथ जो चार-पांच तीमारदार थे, और जो एल्कोहॉल के प्रभाव में थे, उन्होंने मुझे दुबारा दर्द का इंजेक्शन लगाने के लिए कहा । मेरे मना करने पर, उन्होंने मुझे गालियां दीं, और ऐसी बातें कहीं, जिससे प्रतीत होता था, कि उनकी समझ में, मैं पता नही कैसे डाक्टर बन गया हूं, और मुझे दो पैसे की भी अक्ल नही है । इसके बाद मेरे प्रतिरोध करने पर, उन्होंने मुझसे हाथापाई की, लिहाज़ा उन तीमारदारों के खिलाफ, एफ आई आर दर्ज करने हेतु, हम लोग जो तहरीर लेकर आये हैं, उसे आप अग्रसारित करने का कष्ट करें ।” इतना कहकर अगली पंक्ति मे बैठे, एक डाक्टर ने, एक टाइप किया हुआ कागज साहब की तरफ बढ़ा दिया । साहब ने कागज को हाथों-हाथ लिया, और बिना चश्मा लगाये, उसे पढ़ा । कमरे मे बैठे, सभी डाक्टरों को कन्फर्म हो गया, कि साहब इस कागज को, थोड़ी देर पहले, अपने कानों से, बहुत कायदे से पढ़ चुके हैं, और इस समय पढ़ने का सिर्फ रिहर्सल भर कर रहे हैं । कागज पढ़ने के बाद, साहब ने उसी बन्द कमरे में, मार्टिन लूथर किंग के ऐतिहासिक भाषण ‘आई हैव ए ड्रीम’ जैसा, एक ऐतिहासिक भाषण दिया । मार्टिन लूथर किंग का भाषण, अगर मार्मिक और दिल को छू लेने वाला था, तो साहब का भाषण भी, दिल को छेदकर पार कर जाने वाला और बुक्का फाड़-फाड़ कर रुला देने वाला था । साहब ने फरमाया – ” ठीक है, एफ आई आर करवा दो । लेकिन इससे क्या होगा ? मुकदमा लड़ोगे ? भैया, उन लोगों को मैं जानता हूं । लोकल के आदमी हैं, और विधायक जी के जानने वाले हैं । तुम बाहर के आदमी हो । कोर्ट मे, आते-जाते फिर मारपीट करेंगे, तो क्या कर लोगे ? कितनी बार रिपोर्ट लिखवाओगे ? कहो तो हम अभी बता दें, एक मिनट नही लगेगा, और तुम्हारी रिपोर्ट पर, फाइनल रिपोर्ट लग जायेगी । यहां कोई किसी की सुनने वाला नही है । डी एम, एस पी, तो दूर की बात है, कानूनगो तक हनक के साथ आता है अस्पताल में । प्रशासन के खिलाफ, न तुम कुछ कर पाओगे, और न हम । और भैया ऐसा है, कि डाक्टरी करोगे, तो मारपीट की सम्भावना हमेशा बनी ही रहेगी । ये तो महाप्रसाद है, हर डाक्टर को, कभी न कभी मिलता ही है । जिनको नही मिला, समझो बहुत किस्मत वाले हैं । समझाना मेरा काम था, बता दिया । आगे जैसी तुम्हारी मर्जी । “
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साहब ने बीस साल पहले ही, अपनी डाक्टरी वाली केंचुल, उतार फेंकी थी, और नयी खाल के साथ, प्रशासक बन गये थे । पर ये कमीने डाक्टर, उन्हें अभी तक डाक्टर ही समझे जा रहे थे, और उन्हें अपना हमपेशा समझ कर, उनसे हमदर्दी की उम्मीद लगाये बैठे थे । यहां तक तो चलो वे बर्दाश्त भी कर लेते, पर असली समस्या तो प्रशासन वालों की तरफ से थी । प्रशासन वाले भी, उन्हें डाक्टर ही समझते रहे थे, और अपनी बिरादरी से, उन्हें कुत्ते की तरह दुत्कार कर भगा देते थे । साहब की मेटामार्फोसिस तो बीस साल पहले ही हो गयी थी, पर उन्होंने जो केंचुल उतारी थी, वह अभी तक उनकी दुम से लटकी हुई, उन्हें परेशान कर रही थी । " इति मेटामार्फोसिस कथा "










