अपने आप को अन्य लोगों से अलग समझना आपकी वैयक्तिक भिन्नता को प्रदर्शित करता है। आप समाज का एक अभिन्न अंग होते हुए खुद को समाज का अतुलनीय हिस्सा मानते हैं। ऐसा मानना आपको चेतन या अचेतन रूप से आत्मविश्वास से भर देता है क्योंकि विचारों की शृंखला आपको महसूस कराती है कि आपका जीवन मूल्यवान है। आपके द्वारा किया गया दिन-प्रतिदिन का व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक या आध्यात्मिक कार्य आपके और समाज के हित में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। यह एक आधारभूत दृष्टिकोण है जिसके बारे में हम चेतन रूप से ज्यादातर अनजान होते हैं।
अब आप किसी ऐसे व्यक्ति के बारे में सोचें जो मानसिक रूप से स्वस्थ नहीं है। आप निश्चित रूप से किसी न किसी ऐसे व्यक्ति से परिचित होंगे। ऐसे व्यक्ति द्वारा किये गए कार्य क्या आपको उतने ही महत्वपूर्ण लगते हैं जितने कि आपके? क्या आप उस व्यक्ति का भी उसी तरह सम्मान करते हैं जितना कि अपना या किसी और का? क्या आप उस व्यक्ति को समाज के अनुकूल मानते हैं? क्या आप उसके इलाज में उसकी मदद करना चाहते हैं? क्या आप उसकी समस्याओं एवं रोग के इलाज में अपनी भूमिका तथा कठिनाइयों से परिचित हैं? ऐसे अनेक प्रश्न हैं जिनका उत्तर ईमानदारी से देने के बजाए अपने स्वाभिमान और सामजिक प्रतिष्ठा को ध्यान में रखते हुए देना ही उचित लगता है, किन्तु यही वे कारण हैं जो किसी मानसिक रोग से ग्रस्त व्यक्ति के स्वाभिमान और आत्मविश्वास पर सीधा प्रहार करती हैं और हम जाने-अनजाने इस प्रहार की तीव्रता और आवृत्ति दोनों ही बढ़ाते हैं।
कोई मानसिक रोग और उसका इलाज किसी ग्रसित व्यक्ति के जीवन का एक पहलू भर है न कि सम्पूर्ण जीवन जिसमें उसकी इच्छाएं, उम्मीदें, स्वमूल्य, परिवार, समाज, स्वतंत्रता, स्वीकार्यता एवं उपलब्धियां आदि सम्मिलित हैं। विभिन्न मनोवैज्ञानिकों ने अपने शोध-अध्ययनों में यही पाया है कि किसी मानसिक रोग की तीव्रता तथा पुनरावर्तन में व्यक्ति के जैवरासायनिक असंतुलन के साथ ही सामुदयिक कारकों का भी महत्वपूर्ण योगदान होता है। जरा सोचिये, यदि आप ऐसे समाज में रहते हों जहाँ आपकी उपस्थिति की अहमियत न हो, आपका परिवार ही आपकी उपस्थिति को अवांछनीय और अशोभनीय प्रदर्शित करता हो तो ऐसे में आपके मनोबल की क्या स्थिति होगी?
वर्तमान समय में सरकार एवं निजी संस्थाओं द्वारा विभिन्न प्रकार से जन-जागरूकता शिविर चलाये जा रहे हैं किन्तु सार्थक प्रभाव देखने के लिए हमें व्यक्तिगत स्तर पर अपनी अभिवृत्तियों, मनोरोगों एवं मनोविकारों के बारे में अपनी रूढ़िवादिता को बदलना होगा।
हाल ही में तनाव से ग्रसित एक व्यक्ति ने मुझसे प्रश्न किया जो आत्मावलोकन के लिए प्रेरित करता है। सवाल यह था कि ‘तनावग्रस्त होने के कारण मेरी दिनचर्या बिगड़ गई है। मेरे मन में नकारात्मक विचार आते हैं जिससे मैं परेशान हूं और ऐसे में मुझसे अपेक्षा की जाती है कि मैं सामान्य दिखूं, सामान्य तरीके से बात करूँ और सबकुछ सामान्य तरीके से करूँ। क्या मुझसे ऐसी उम्मीद रखना असामान्यता नहीं? क्या उन लोगों का इलाज नहीं होना चाहिए जो मुझसे सामान्य रहने की उम्मीद करते है? मुझे समझने के बजाय समझाने का प्रयास क्यों करते हैं?’
परिवर्तन के इस दौर में मानसिक स्वास्थ्य के प्रति हमें (समाज को) अपने दृष्टिकोण एवं रूढ़िवादी मानसिकता में बड़े परिवर्तन की आवश्यकता है।










