आइये एक चिकित्सक होने के नाते विचार करें ,क्यों डॉ दत्ता को अपनी जान देनी पड़ी
विचार इसलिए भी करना है क्योंकि हम उसी नाव में सवार हैं ,हादसा किसी से भी हो सकता है ,लेकिन हादसे की जड़ में नहीं गए तो यह घटनाएं रिपीट होती रहेंगी
चिकित्सक एक इंसान है ,इंसानों के बीच रहता है ,यो इंसानी भावना ,दया चैरिटी दयालुता ,गरीब और मजबूर की सहायता करने बाला भगवान जैसे जुमलों में फंसकर अपनी जान निस्वार्थ भाव से मरीजों में फंसा देता है
लेकिन वो भूल जाता है ,इस स्वार्थी और उपभोक्तावादी युग में परिणाम महत्वपूर्ण हैं,अगर आपके मुफ्त और चैरिटी के इलाज में भी अगर आप सेवाओं में देरी करते हैं ,या जरूरतमंद की चॉइस के अनुसार सेवाएं नहीं दे पाते हो तो आपको पब्लिक पनिशमेंट भी दे सकती है
क्योंकि पब्लिक पनिशमेंट देते वक्त यह विचार नहीं करती की वो मुफ्त में सेवाएं ले रहे हैं ,उन्हें तो अपनी सेवाओं में देरी ,त्रुटि या सेवाओं के न मिलने से हुए नुकसान के कारण जो फ्रस्ट्रेसन आता है वो निकलना है
सरकारी अस्पताल में बिल्कुल मुफ्त सेवाएं मिलती हैं वहां आये दिन मारपीट का कारण पब्लिक का फ्रस्ट्रेसन ही है ,आखिर कुंठा कहाँ निकली जाए?
कुंठा अकेला इंसान कभी भी नहीं निकालता,कुंठा निकालने के लिए प्लेटफार्म चाहिए ,और वो प्लेटफार्म मिलता है भीड़ में
हांजी भीड़ में,crowd behavior is insane behavior,साइकोलॉजी में एक टॉपिक है भीड़ व्यवहार ,जिसमे इंसान अपनी रिस्पांसिबिलिटी खो देता है ,वो कोई भी क्रिमिनल व्यवहार कर देता है ,इंडिविजुअल जहां कानून हाथ में लेने से डरता है ,भीड़ में व्यक्ति सोचता है ,मुझे भीड़ में कौन पहचानेगा ,जो सबके साथ होगा वो मेरे साथ भी हो जाएगा,और इंडिविजुअल इंसान भीड़ का भाग बनकर बिना सोचे विचारे मारो मारो के साथ मारने लगता है
उदाहरण के तौर पर किडनी चोर कहकर मोब लिंचिग में लोगों को मार रहे हैं,बच्चा चोर कह कर किसी भी पागल या विक्षिप्तों को मार रहे हैं ,भीड़ में तो बस सब पीट रहे हैं ,इसलिए बाकी भी पीटने लग जाते हैं ,inquary करने का टाइम किसी को नहीं,बस एक ने कहा मारो तो सब चिल्लाने लग जाते हैं मारो,और मारना शुरू,चाहे पिटने बाला निर्दोष तो क्या ,खुद का परिचित और रिश्तेदार भी हो सकता है,लेकिन भीड़ में शामिल होकर इंसान भीड़ बन जाता है
चिकित्सक को अपनी छठी इन्द्रिय विकसित करनी चाहिए,मरणासन्न मरीज को रेफर करें और भीड़ बाले मरीज से बचें,अगर ऐसा नहीं किया तो मरीज के मरने पर तुरन्त ही ये भीड़ आक्रामक होकर जानलेवा हमला कर सकती है ,अगर भीड़ ने हमला कर दिया ,तो भाग कर जान बचा लेना ही विकल्प है ,आप भीड़ को नहीं समझा सकते ,भीड़ समझने के लिए नहीं समझाने के लिए आती है
आप अगर पुलिस बचा लेगी इस मुगालते में हैं तो सोच लो भीड़ पुलिस से भी नहीं चूकती ,भीड़ खुद को पावरफुल और कानून से परे समझती है
भीड़ मानसिकता हो तो आपकी निस्वार्थ भाव से सेवा ,हो या चैरिटी हो या आप भगवान ही क्यों न हों बचेंगे नहीं
आपको सीधे श्रद्धांजलि ही दी जाएगी ,भीड़ की निंदा की जाएगी ,गिरफ्तारियां होंगी मुकदमा भी चलेगा,लेकिन यह सब देखने के लिए आप न होंगे।
अब डॉ देबेन दत्ता को भी श्रद्धांजलि
–डॉक्टर देबेन दत्ता, 73 वर्षीय वृद्ध अनुभवी डॉक्टर जो कि असम के चाय बागान में मुफ्त में इलाज कर रहे थे,डॉ देबेन को प्रतिबर्ष चेरिटी के लिए समाचार पत्रों में छपकर ख्याति मिलती थी ,उन्हें चेरिटी का अवार्ड भी प्रतिबर्ष मिलते रहते थे
यही न्यूजपेपर की ख्याति उनका सेवा करने का जुनून प्रतिबर्ष बढ़ाती जाती थी,डॉ देबेन को ख्याति का जुनून इतना था कि वे अपनी बृद्ध पत्नी और परिवार को भी टाइम नहीं दे पाते थे,
डॉ साहब गरीब चाय बागान के मज़दूरों का, इलाज करते थे ,उनको ही अपना परिवार मानते थे।
उन्ही तथाकथित गरीब मज़दूरों द्वारा ,एक गंभीर रूप से घायल मरीज को न बचा पाने पर नृशंस हत्या कर दी गयी,
उस दिन मजदूरों की भीड़ एक गंभीर रूप से घायल मज़दूर को अस्पताल लेकर आई थी ,
डॉ देबेन दत्ता, लंच ब्रेक में खाना खाने गए हुए थे। उन्होंने फ़ोन पर ड्यूटी नर्स को ट्रीटमेंट बताया, नर्स ने इलाज चालू किया, लेकिन मरीज के साथ आई भीड़ के बारे में नहीं बता पाईं डॉक्टर साहब को आने में लगभग 30 मिनिट का समय लगा।
गंभीर रूप से घायल मरीज के इलाज में तन मन से लगने के बाबजूद गंभीर रूप से घायल मज़दूर को डॉक्टर देवेन दत्ता नहीं बचा पाए कुछ देर में उसकी मृत्यु हो गयी।
तब मज़दूरों की भीड़ ने डॉक्टर देबेन दत्ता पर देर से आने, के कारण मरीज को समय पर इलाज न देने के कारण मृत्यु होने का जिम्मेदार मानकर हमला कर दिया,
उनके अनुसार अगर डॉ दत्ता समय पर आ जाते तो मरीज बच जाता ,नृसंश हमले में भीड़ डॉ दत्ता पर टूट पड़ी , आक्रामक भीड़ ने जो हथियार उनके हाथ पड़ा उससे हमला किया ,अस्पताल के टूटे कांच के टुकड़ों से उनकी रक्त वाहिकाएं काट दीं,
पुलिस पहुंचने के बाद भी हमलावर नहीं रुके ,पुलिस डॉक्टर साहब को मुक्त नही कर पाई, एम्बुलेंस तक को पहुंचने नही दिया
डॉ देबेन को मज़दूरों से छुड़ाने के लिए अर्धसैनिक बलों को बुलाना पड़ा, डॉ देबेन को बंधक स्थिती से मुक्त कर अस्पताल ले जाया गया ।
किन्तु डॉ देबेन की अत्यधिक खून बहने से मृत्यु हो गयी।
21 वर्षों से डॉ देबेन चाय मज़दूरों का इलाज कर जुनून से रहे थे। अपने पेशे के प्रति समर्पण की वजह से सेवानिवृत्ति के बाद भी, बिना किसी पारिश्रमिक के वो मज़दूरों का इलाज करते रहे, लेकिन भीड़ मानसिकता को न समझने और गंभीर मरीज को समय पर रेफर न करने के कारण
उनकी नृशंस हत्या के रूप में पारितोषिक मिल गया।
सबसे दुःखद ये है कि उन्हें मारने वालों में वो भी शामिल थे,जिनका रोजाना डॉक्टर देबेन इलाज कर रहे थे और जिनके बच्चे डॉक्टर देबेन दत्ता के हाथों से पैदा हुए थे।
ये चाय बागानों में मज़दूरों द्वारा डॉक्टर्स पर किया गया तीसरा बड़ा हमला है पिछले एक साल में। इस घटना के बाद एक के बाद एक डॉक्टर इस्तीफा देते जा रहे हैं चाय बागानों के अस्पतालों से।
इसलिए चिकित्सक साथियो उपभोक्तावादी ,परिणाम से पहचानने बाले ,स्वार्थी समय को पहचानो,
दया ,चेरिटी ,भगबान ,देवदूत, ख्याति ,अवार्ड जैसी भावनाओं में मत बहो, अपने परिवार को समय दो ,उनको उनके हिस्से का समय दो
सीरियस मरीज और भीड़ से बचो 😓😓😓
डॉ रामबिलास गुर्जर










