हिंदुस्तान के अस्पतालों का इवोल्यूशन
सोशल मीडिया पर कुछ लोग लिख रहे हैं मालदीव्स के रिसॉर्ट्स से भी महंगे हैं दिल्ली ,एनसीआर के कॉर्पोरेट अस्पताल।बिल्कुल सही है, और होने नही चाहिए।
पर किसने बनाया?
80 -90 के दशक तक ऐसा नही था। अस्पताल बहुत कम थे लेकिन उन पर अनावश्यक नियम कानूनों का , अनावश्यक उम्मीदों का बोझ नही था इसलिए कम होने के बावजूद भी मरीजों को सस्ता इलाज़ उपलब्ध था।फिर नए -नए नियम कानून अस्पतालों पर लागू होते गए और अस्पतालों का एवोल्यूशन होता गया।
नियम -कायदों की कड़ी में सबसे पहली और गहरी चोट कॉन्सुमेर प्रोटेक्शन एक्ट ने की।इस एक्ट से पहले डॉक्टर और मरीज़ में विश्वास का अटूट रिश्ता था। डॉक्टर्स कम से कम जांच करते थे और अपने अनुभव के आधार पर इलाज़ करते थे।कॉन्सुमेर प्रोटेक्शन एक्ट के बाद अदालतों में डॉक्टर्स से इलाज़ के सबूत मांगे जाने लगे।डॉक्टर्स से पूछा जाने लगा कि इस बीमारी में ये क्यों किया ,ये क्यों नही किया।इस मरीज़ का ये आपरेशन क्यों किया,वो क्यों नही किया। इस आपरेशन में ये कॉम्प्लिकेशन क्यों हुआ इत्यादि इत्यादि।डॉक्टर्स पर लाखों करोड़ों के जुर्माने लगाए जाने लगे ।एक स्वस्थ व्यक्ति भगदड़ या पुलिस की गोली से मर जाए तो सरकार 2-3 लाख देकर परिवार का मुह बंद कर देती है लेकिन अस्पताल में किसी नवजात को रेटिनोपैथी हो तो 50 -50लाख के जुर्माने अदालतें लगाती है।एक डॉक्टर पर 25 लाख का जुर्माना सिर्फ इसलिए लगाया जाता है कि उन्होंने मरीज़ को 3D सोनोग्राफी की सलाह नही दी।देश मे इस तरह के हज़ारों केसेस डॉक्टर्स पर चल रहे हैं। अदालतों में मी लोर्डस कई -कई साल मुकदमा सुनने के बाद एक ऐसा निर्णय देते हैं जिसे ऊपरी अदालतें बिल्कुल गलत बताते हुए पलट देती हैं लेकिन डॉक्टर्स से कोई गलती हो तो उनपर करोड़ों के जुर्माने वो ही मी लॉर्ड्स बड़ी आसानी से लगा देते हैं।
इन लाखों करोड़ों के जुर्मानों का नतीजा ये हुआ कि भारतीय डॉक्टर्स ने “एविडेंस बेस्ड मेडिसिन” की पाश्चात्य प्रणाली अपना ली।आज छोटी छोटी बीमारियों में डॉक्टर्स को बड़ी बड़ी जांच करवानी पड़ती हैं ताकि कहीं कोई चूक न हो जाये और अदालतें लाखों के जुर्माने न लगा दें।जिस बीमारी का इलाज पहले mbbs डॉक्टर कर लेता था उसे आज md डॉक्टर को रेफेर किया जाता है।जिस बीमारी का इलाज पहले md डॉक्टर कर लेता था उसे अब सुपर स्पेशलिस्ट डॉक्टर्स को रेफेर किया जाता है ।जिन बीमारियों का इलाज पहले पड़ोस के छोटे नर्सिंग होम्स में हो जाता था उन्हें आज डॉक्टर्स कॉन्सुमर केस के डर से बड़े अस्पतालों के लिए रेफेर कर देते हैं।इसका सबसे बड़ा खामियाजा मरीज़ ने ही भुगता है।खर्चे बढ़े हैं उसके।
फिर आया nabh, मतलब अमेरिका से कॉपी- पेस्ट किया हुआ क्वालिटी का ऐसा सर्टिफिकेट जिसमे भारतीय अस्पतालों पर अमेरिकी स्टैंडर्ड्स थोप दिए गए बिना इस बात को ध्यान में रखे कि भारतीय और अमेरिकी मरीजों की पेइंग कैपेसिटी में ज़मीन आसमान का फ़र्क़ है। ।nabh ने सामान्य से दिखने वाले अस्पतालों को 5 स्टार होटल्स में बदल दिया।अब आपको या आपकी सरकार को क्वालिटी चाहिए तो पैसा भी खर्च करना सीखना होगा,सीधी सी बात है,इस पर कोई ज्यादा लिखने की ज़रूरत नही है।
उसके बाद हर साल एक नया नियम जुड़ता गया और मरीजों का बिल बढ़ता गया।PNDT, MTP ,पॉल्युशन कंट्रोल , फायर एंड सेफ्टी ,क्लीनिकल इस्टैब्लिशमेंट एक्ट जैसे दर्जनों कानून साल दर साल अस्पतालों पर थोपे गए।ये सिलसिला आज भी जारी है।हर कानून के लिए एक इंस्पेक्टर होता है ।उनका भी ख्याल रखना होता है अस्पतालों को।सारे नियम कानूनों की सही सही पालना करने के बावजूद बिना रिश्वत दिए किसी अस्पताल को ये तरह -तरह के लाइसेंस नही मिलते। याद रखिये इस रिश्वत खोरी का भी भुगतान अंततः एंड यूजर यानि मरीज़ को ही करना होता है।आज तक दो तीन मंजिल के किसी छोटे अस्पताल में आग लगने से किसी की जान शायद ही गई हो लेकिन इन छोटे -छोटे अस्पतालों को भी आज फायर एंड सेफ्टी की noc लेनी होती है,सारे फायर एंड सेफ्टी नॉर्म्स पूरे करने होते हैं और नॉर्म्स पूरे करने के बाद रिश्वत भी देनी होती है।
ये तो बात हुई अस्पतालों के संचालन में सरकारी अड़चनों की जिनके कारण इलाज़ महंगा हुआ।अब बात कीजिये किसी तरह की सरकारी सहायता की।
आज आप कोई भी छोटा -मोटा उद्योग लगाएं तो आपको बिजली पानी सस्ती दरों पर सरकार देगी , मुद्रा लोन देगी,सब्सिडी देगी ,अन्य सभी सुविधाएं देगी।अस्पतालों को आज तक ऐसी हर सुविधा से वंचित रखा गया है। सभी मेडिकल उपकरणो पर 18 प्रतिशत gst वसूलती है सरकार।आज कोविद के दौरान भो वेंटीलेटर तक की खरीद पर हॉस्पिटल्स 18 प्रतिशत gst दे रहे हैं । सभी मेडिकल उपकरण विदेशों से आते हैं, इसलिए महंगे होते हैं। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि एक सामान्य सा आइटम लेटेक्स एग्जामिनेशन ग्लॉव तक विदेशों से इम्पोर्ट किया जाता है।
ऐसा सब कुछ इसलिए हुआ क्योंकि आपका स्वास्थ्य न तो कभी आपकी प्राथमिकता रहा न आपकी सरकारों की। महंगी से महंगी शराब के कारखाने आपको हिंदुस्तान में मिल जाएंगे पर छोटे से छोटी मेडिकल डिवाइस आज भी विदेश से आती है। न सरकारों ने कभी हेल्थ के लिए निवेश करना उचित समझा न आपने कभी सरकारों से सवाल पूछे।
इसलिए प्यारे हिंदुस्तानियों हमेशा याद रखिये ,अस्पतालों के खर्चे जितने बढ़ेंगे मरीजों का बिल उतना ही बढ़ेगा।
इंडस्ट्री के लिए हमेशा ” ईज ऑफ डूइंग बिज़नेस” की बात होती है , लेकिन अस्पतालों को कैसे नए- नए नियम कानूनों में जकड़ कर उन्हें मुश्किल में डाला जाए इसकी बात होती है।
जब तक अस्पतालों को ईज ऑफ डूइंग बिज़नेस के दायरे में नही लाया जाएगा तब तक मरीजों के बिल कम नही होंगे।
लेकिन इन सब के बावजूद ये भी सत्य है ,नियम क़ानून कम करके ही अस्पतालों की संख्या बढ़ाई जा सकती है और उनको सस्ता भी किया जा सकता है।